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गुणस्थान- प्रवेशिका
अर्थात् निमित्त से होनेवाले श्रद्धागुण के सम्यक् परिणमन को औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं।
• अनादि मिथ्यादृष्टि के ५ प्रकृतियों का और सादि मिथ्यादृष्टि के ७, ६ या ५ प्रकृतियों का उपशम होता है।
• अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को सर्वप्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन ही प्रगट होता है।
७८. प्रश्न: क्षायोपशमिकसम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
उत्तर : निज शुद्धात्मसन्मुख पुरुषार्थी जीव के पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय में अर्थात् निमित्त से होनेवाले श्रद्धागुण के सम्यक् परिणमन को क्षायोपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं।
• क्षयोपशमह्न अनंतानुबंधी ४ व मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व इन ६ सर्वघाति प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाति सम्यक् प्रकृति दर्शनमोहनीय का उदय ।
७९. प्रश्न : क्षायिकसम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
उत्तर : निज शुद्धात्मसन्मुख पुरुषार्थी जीव के पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षय के समय में होनेवाले तथा भविष्य में अनन्त कालपर्यन्त रहनेवाले श्रद्धागुण के सम्यक् परिणमन को क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं।
क्षायिक सम्यग्दर्शन हमेशा क्षायोपशमिक सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है और भविष्य काल में अनन्त कालपर्यन्त क्षायिकरूप ही रहता है। ८०. प्रश्न: औपशमिकसम्यक्त्व के कितने भेद हैं ?
उत्तर : दो भेद हैं, प्रथमोपशमसम्यक्त्व और द्वितीयोपशमसम्यक्त्व । ८१. प्रश्न: प्रथमोपशमसम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
उत्तर: 'प्रथम' शब्द का अर्थ पहली बार नहीं। अनादि अथवा सादि मिथ्यादृष्टि जीव को जब भी औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उसको प्रथमोपशम-सम्यक्त्व ही कहते हैं ।
८२. प्रश्न: द्वितीयोपशमसम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
उत्तर : क्षायोपशमिकसम्यक्त्व के अनंतर श्रेणी चढ़ने के लिए जो औपशमिक सम्यक्त्व होता है, उसे द्वितीयोपशमसम्यक्त्व कहते हैं।
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• श्रेणी चढ़ने के सन्मुख सातिशय सप्तम गुणस्थानवर्ती क्षायोपशमि सम्यग्दृष्टि मुनिराज के (अनंतानुबंधीचतुष्क के विसंयोजन तथा ) दर्शनमोहनीय त्रिक के उपशम के समय में अर्थात् निमित्त से होनेवाले श्रद्धागुण के सम्यक् परिणमन को द्वितीयोपशम-सम्यक्त्व कहते हैं।
८३. प्रश्न : विसंयोजन किसे कहते हैं ?
उत्तर : अनंतानुबंधी चतुष्क के अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषाय और हास्यादि नौ नोकषायकर्मरूप परिणमित होने को विसंयोजन कहते हैं। • यह विसंयोजना का कार्य चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान पर्यन्त किसी भी एक गुणस्थान में होता है।
८४. प्रश्न: जीव के असाधारण भाव किसे कहते हैं और वे कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर : जीव के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में न पाये जानेवाले अर्थात् मात्र जीव में ही पाये जानेवाले भावों को जीव के असाधारणभाव कहते हैं। ये औपशमिक आदि पांच प्रकार के हैं ह्र
१. औपशमिक भाव : निजशुद्धात्मसन्मुख पुरुषार्थी जीव के मोहनीय कर्म के अंतरकरणरूप उपशम के समय में अर्थात् निमित्त से होनेवाले शुद्धभावों को औपशमिकभाव कहते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ह्न ये दो औपशमिकभाव हैं।
२. क्षायिकभाव: निजशुद्धात्मसन्मुख पुरुषार्थी जीव के कर्मक्षय के समय में होनेवाले एवं भविष्य में अनंत काल पर्यंत रहनेवाले शुद्धभावों को क्षायिकभाव कहते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दर्शन, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, • क्षायिक वीर्य ह्रये नौ भेद क्षायिकभाव के हैं।
३. क्षायोपशमिकभाव : कर्म के क्षयोपशम के समय में अर्थात्