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________________ संपादकीय धवला पुस्तक ४ के गुणस्थान प्रकरण में मैंने अपनी ओर से नया कुछ भी नहीं किया; तथापि संपादन के निमित्त से जो कुछ बन पाया उसका ज्ञान कराना चाहता हूँ। श्री टोडरमल दि. जैन महाविद्यालय में गुणस्थान का विषय पढ़ाने का सहज ही सुअवसर मिला है। इसलिए कहीं भी गुणस्थान का विषय दिखे तो उसे बारीकी से देखने-पढ़ने का भाव होता है। धवला पुस्तक ४ में गुणस्थान का विषय आया है, यह जानने को मिला। उसे अनेक बार पढ़ा। इसमें गुणस्थान के संबंध में अनेक नये-नये प्रमेय पढ़ने को मिले। उनका लाभ सामान्य पाठकों को भी हो, यह भावना मन में उत्पन्न हुई। अतः जो धवला पुस्तक ४ में हिन्दी भाषा में आया है, उसे ही छोटे-छोटे परिच्छेद बनाकर दिया है। पाठकों से निवेदन है कि प्रारंभ में विषय कुछ जटिल तथा सूक्ष्म आया है; तथापि बाद में अनेक विषय सुलभरूप से भी प्राप्त होते हैं। अतः पाठक धैर्य से पढ़ें। आचार्य पुष्पदन्त तथा आचार्य भूतबलि रचित षट्खंडागम के मात्र ३२ सूत्र है और उन सूत्रों की आचार्य वीरसेन द्वारा लिखित धवला टीका भी है। हिन्दी अनुवाद पण्डित श्री फूलचन्दजी का है। साथ ही उनका भावार्थ भी दिया है। बीच-बीच में हैडिंग तो मैंने अपनी ओर से दिये हैं। चौदह गुणस्थानों का विभाजन भी मैंने अपनी ओर से किया है। गुणस्थान में आगमन तथा गमन शब्दों का प्रयोग भी मैंने अपनी ओर से जोड़ा है। यहाँ मूल ग्रन्थ में गुणस्थान में आगमन का विषय प्रथम दिया है और गमन का विषय को बाद में रखा है। धवला का विषय समाप्त होने के बाद मैंने अपनी ओर से १४ ही गुणस्थानों के गमनागमन को नक्शों से समझाने का प्रयास किया है। वहाँ गोम्मटसार जीवकाण्ड के विभाग का विशेष उपयोगी अंश साथ में जोड़ दिया है। तदनंतर गुणस्थानों के काल का भी ज्ञान कराया है। सम्पादन में श्री गोमटेश चौगुले, शास्त्री का भी सहयोग मिला है। कम्पोज करने का उसमें भी विशेष रूप से नक्शा बनाने का कष्टसाध्य कार्य श्री कैलाशचन्दजी शर्मा ने किया है। सिवनी नगरनिवासी साधर्मियों ने कीमत कम करने के लिए आर्थिक सहयोग दिया है। साथ ही कवर पेज तथा छपाई का कार्य प्रकाशन विभाग के प्रभारी श्री अखिलजी बंसल ने ही पूर्ण मनोयोग से किया है; उन सबको धन्यवाद । - ब्र. यशपाल जैन 3 आचार्य श्रीपुष्पदन्त-भूतबलि - प्रणितः षट्खंडागमः आचार्य श्रीवीरसेन विरचित धवला टीका समन्वितः अनुवादक पण्डित श्री फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी धवला कालानुगम ( पुस्तक ४ का अंश) गुणस्थान- प्रकरण मंगलाचरण कम्मकलंकुत्तिणं विबुद्धसव्वत्थमुत्त वत्थमणं । मऊण सहसेणं कालणिओगं भणिस्सामो ।। अर्थ - कर्मरूप कलंक से उत्तीर्ण, सर्व अर्थों के जाननेवाले और अस्त रहित अर्थात् सदा उदित, ऐसे वृषभसेन गणधर को नमस्कार करके अब कालानुयोगद्वार को कहते हैं । सूत्र - कालानुगम से दो प्रकार का निर्देश है, ओघनिर्देश और आदेश- निर्देश ॥ १ ॥ नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल और भावकाल, इसप्रकार से काल चार प्रकार का है। उनमें से 'काल' इसप्रकार का शब्द नामकाल कहलाता है । १. शंका - शब्द अपने को कैसे स्वीकार कराता है?
SR No.009451
Book TitleGunsthan Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Shastri, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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