________________
षट्खण्डागम सूत्र-१
गुणस्थान-प्रकरण समाधान - यह कोई दोष नहीं है: क्योंकि. शब्द के स्वपरप्रकाशात्मक प्रमाण के प्रतिपादक शब्द पाये जाते हैं। 'वह यही है' इसप्रकार से अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना है। वह स्थापना सद्भाव और असद्भाव के भेद से दो प्रकार की है। अनुकरण करनेवाली वस्तु में अनुकरण करनेवाले अन्य पदार्थ का बुद्धि के द्वारा समारोप करना सद्भावस्थापना है। उससे भिन्न या विपरीत असद्भावस्थापना होती है।
उनमें से पल्लवित, अंकुरित, कलित, करलित, पुष्पित, मुकुलित तथा सुन्दर कोयल के कलकल आलाप से परिपूर्ण वनखण्ड से उद्योतित, चित्रलिखित वसन्तकाल को सद्भावस्थापनाकाल निक्षेप कहते हैं।
गैरुक, मट्टी, ठीकरा इत्यादिक में यह वसंत है' इसप्रकार बुद्धि के बल से स्थापना करने को असद्भावस्थापनाकाल कहते हैं। आगम और नोआगम के भेद से द्रव्यकाल दो प्रकार का है। कालषियक प्राभृत का ज्ञायक; किन्तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव आगमद्रव्यकाल है। ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त के भेद से नोआगमद्रव्यकाल तीन प्रकार है। उनमें ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यकाल १. भावी, २. वर्तमान और ३. त्यक्त के भेद से तीन प्रकार का है।
वह भी पहले बहुत बार प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यहाँ पर पुनः नहीं कहते हैं।
भविष्यकाल में जो जीव कालप्राभृत का ज्ञायक होगा, उसे भावीनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं।
जो दो प्रकार के गंध, पाँच प्रकार के रस, आठ प्रकार के स्पर्श और पाँच प्रकार के वर्ण से रहित है, कुम्भकार के चक्र की अधस्तन शिला या कील के समान है, वर्तना ही जिसका लक्षण है और जो
लोकाकाश-प्रमाण है, ऐसे पदार्थ को तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। पंचास्तिकायप्राभृत में कहा भी है -
गाथार्थ - 'काल' इसप्रकार का यह नाम सत्तारूप निश्चयकाल का प्ररूपक है; और वह निश्चयकालद्रव्य अविनाशी होता है। दूसरा व्यवहारकाल उत्पन्न और प्रध्वंस होनेवाला है; तथा आवली, पल्य, सागर आदि के रूप से दीर्घकाल तक स्थायी है।।१।।
व्यवहारकाल पुद्गलों के परिणमन से उत्पन्न होता है और पुद्गलादिका परिणमन द्रव्यकाल के द्वारा होता है, दोनों का ऐसा स्वभाव है। यह व्यवहारकाल क्षणभंगुर है; परन्तु निश्चयकाल नियत अर्थात् अविनाशी है।।२।।
वह कालनामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है और न अन्य को अन्यरूप से परिणमाता है। किन्तु स्वतः नाना प्रकार के परिणामों को प्राप्त होनेवाले पदार्थों का काल नियम से स्वयं हेतु होता है।।३।।
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो एक-एक रूप से स्थित हैं, वे कालाणु जानना चाहिए ।।४।।
जीवसमास में भी कहा हैगाथार्थ - जिनवर के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, अथवा पंच अस्तिकाय, अथवा नव पदार्थों का आज्ञा से और अधिगम से श्रद्धान करना, सम्यक्त्व है।॥५॥ उसीप्रकार से आचारांग में भी कहा है
गाथार्थ - पंच अस्तिकाय, षट्जीवनिकाय, कालद्रव्य तथा अन्य जो पदार्थ केवल आज्ञा अर्थात् जिनेन्द्र के उपदेश से ही ग्राह्य हैं, उन्हें यह सम्यक्त्वी जीव आज्ञाविचय धर्मध्यान से संचय करता है, अर्थात् श्रद्धान करता है।।६।।
तथा गृद्धपिच्छाचार्य द्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्र में भी 'वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व, ये कालद्रव्य के उपकार हैं' इस प्रकार से द्रव्यकाल प्ररूपित है।