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अपूर्वकरण अष्टम गुणस्थान का वर्णन (चौपाई) अब वरनौं अष्टम गुनथाना।
नाम अपूरवकरन बरखाना। कछुक मोह उपशम करि रावै।
अथवा किंचित क्षय करि नावै॥९५|| अर्थ - अब अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान का वर्णन करता हूँ, जहाँ मोह का किंचित् उपशम अथवा किंचित् क्षय होता है ।।९५ ।।
पुनः (चौपाई) जे परिनाम भए नहिं कब ही।
तिनको उदै देखिये जब ही॥ तब अष्टम गुनथानक होई।
चारित करन दूसरौ सोई॥१६॥ अर्थ - इस गुणस्थान में ऐसे विशुद्ध परिणाम होते हैं, जैसे पूर्व में कभी नहीं हुए थे; इसीलिये इस आठवें गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है।
यहाँ चारित्र के तीन करणों में से अपूर्वकरण नामक दूसरा करण होता है ।।९६ ।।
अनिवृत्तिकरण नौवें गुणस्थान का वर्णन (चौपाई) अब अनिवृत्तिकरन सुनु भाई।
जहाँ भाव थिरता अधिकाई॥ पूरव भाव चलाचल जेते।
सहज अडोल भए सब तेते ॥९७॥ अर्थ - हे भाई! अब अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान का स्वरूप सुनो । जहाँ परिणामों की अधिक स्थिरता है, इससे पहले आठवें गुणस्थान में जो परिणाम किंचित् चपल थे, वे यहाँ अचल हो जाते हैं ।।९७ ।।
पुनः (चौपाई) जहाँ न भाव उलटि अध आवै।
सो नवमो गुनथान कहावै॥ चारितमोह जहाँ बहु छीजा।
सो है चरन करन पद तीजा ||९८॥ शब्दार्थ :- उलटि = लौटकर । अध = नीचे । छीजा = नष्ट हुआ।
अर्थ - जहाँ चढ़े हुए परिणाम फिर नहीं गिरते, वह नववाँ गुणस्थान कहलाता है। इस नववें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का बहु' अंश नष्ट हो जाता है, यह चारित्र का तीसरा करण है।।९८ ।।
अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी अग्नि शिखाओं के द्वारा, कर्म-वन को दग्ध करने में समर्थ, प्रत्येक समय में एक-एक सुनिश्चित वृद्धिंगत वीतराग परिणामों को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं।
- गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५७
अनिवृत्ति बादरसापराय प्रविष्ट शुद्धि संयतों में उपशमक भी होते हैं और क्षपक भी होते हैं। -धवला पुस्तक १, पृष्ठ-१८४ से १८७
१-२. उपशमश्रेणी में मोह का उपशम और क्षपकश्रेणी में क्षय होता है।
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१. सूक्ष्म लोभ को छोड़कर सब चारित्रमोह।