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समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान चर्या थित सज्जा मांहि एक सीत उस्न माहि,
एक दोइ होहिं तीन नाहिं समुदाय की||८९॥ शब्दार्थ :- मनसा की = मन की। वाकी (वाक्य की) = वचन की। काय = शरीर । सजा = शय्या । समुदाय = एक साथ।
अर्थ :- वेदनीय की ग्यारह, चारित्रमोहनीय की सात, ज्ञानावरणीय की दो, अंतराय की एक और दर्शनमोहनीय की एक - ऐसी सब बाईस परीषह हैं। उनमें से कोई मनजनित, कोई वचनजनित और कोई कायजनित हैं। इन बाईस परीषहों में से एक समय में एक साधु को अधिक से अधिक उन्नीस तक परीषह उदय आती हैं। क्योंकि चर्या, आसन और शय्या इन तीन में से कोई एक और शीत उष्ण में से कोई एक, इस तरह पाँच में से दो का उदय होता है, शेष तीन का उदय नहीं होता ।।८९ ।।
स्थविरकल्पी और जिनकल्पी साधु की तुलना (दोहा) नाना विधि संकट-दसा, सहि साधै सिवपंथ । थविरकल्पि जिनकल्पि धर, दोऊ सम निगरंथ ||९०।। जो मुनि संगति मैं रहै, थविरकल्पि सो जान | एकाकी जाकी दसा, सो जिनकल्पि बखान ||९१।।
अर्थ - स्थविरकल्पी और जिनकल्पी दोनों प्रकार के साधु एकसे निग्रंथ होते हैं और अनेक प्रकार की परीषह जीतकर मोक्षमार्ग साधते हैं ।।९० ।। जो साधु संघ में रहते हैं, वे स्थविरकल्पधारी हैं और जो एकलविहारी हैं, वे जिनकल्पधारी हैं।।९१ ।।
(चौपाई) थविरकलपि धर कछुक सरागी।
जिनकलपी महान वैरागी॥ इति प्रमत्तगुनथानक धरनी।
पूरन भई जथारथ वरनी।।९२ || अर्थ :-स्थविरकल्पी साधु किंचित् सरागी होते हैं और जिनकल्पी साधु अत्यन्त वैरागी होते हैं। यह छठे गुणस्थान के यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया।।९२।।
अप्रमत्त सप्तम गुणस्थान का वर्णन (चौपाई) अब वरनौं सप्तम विसरामा।
अपरमत्त गुनथानक नामा || जहाँ प्रमाद दशा विधि नासै।
धरम ध्यान थिरता परकासै|९३|| अर्थ - अब स्थिरता के स्थान अप्रमत्तगुणस्थान का वर्णन करते हैं। यहाँ धर्मध्यान में चंचलता लानेवाली पंच प्रकार की प्रमाद क्रिया नहीं है और मन, धर्मध्यान में स्थिर होता है।।९३ ।।
(दोहा) प्रथम करन चारित्र कौ, जासु अंत पद होइ। जहाँ अहार विहार नहिं, अपरमत्त है सोइ ।।९४ ।।
अर्थ - जिस गुणस्थान के अंत तक चारित्रमोह के उपशम व क्षय का कारण अधःप्रवृत्तिकरण चारित्र रहता है और आहार विहार नहीं रहता, वह अप्रमत्तगुणस्थान है।
विशेष :- सातवें गुणस्थान के दो भेद हैं - पहला स्वस्थान और दूसरा सातिशय, सो जब तक छटे से सातवें और सातवें से छठे में अनेक बार चढ़ना-पड़ना रहता है, तब तक स्वस्थान गुणस्थान रहता है।
सातिशय गुणस्थान में अधःकरण के परिणाम रहते हैं, वहाँ आहारविहार नहीं है ।।९४ ।।
अधःप्रवृत्तकरण संबंधी अंतमुहूर्त काल पूर्ण कर प्रति समय अनंतगुणी शुद्धि को प्राप्त हुए परिणामों को अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। इसमें अनुकृष्टि रचना नहीं होती। - गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५०
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