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________________ २२ समयसारनाटक- गर्भित गुणस्थान सम्यक्त्व के चार प्रकार (सवैया इकतीसा ) १. मिथ्यामति - गंठि -भेदि जगी निरमल जोति, जोग सौं अतीत सो तो निहचै प्रमानिये । २. वह दुंद दसा सौं कहावै जोग मुद्रा धरै, ति श्रुतयान भेद विवहार मानिये ।। ३. चेतना चिहन पहिचानि आपा पर वेदै, पौरुष अलख तातैं सामान्य बरवानियै । ४. करै भेदाभेद कौ विचार विसतार रूप, हेय गेय उपादेय सौं विशेष जानिये ॥ ५१ ॥ शब्दार्थ :- गंठि (ग्रंथि) = गाँठ । भेदि = नष्ट करके । अतीत = रहित । दुंद दसा = सविकल्पता । अर्थ :- (१) मिथ्यात्व के नष्ट होने से मन-वचन-काय के अगोचर जो आत्मा की निर्विकार श्रद्धान की ज्योति प्रकाशित होती है, उसे निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिये । (२) जिसमें योग, मुद्रा, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि के विकल्प हैं, वह व्यवहार सम्यक्त्व जानना । (३) ज्ञान की अल्प शक्ति के कारण मात्र चेतना चिह्न के धारक आत्मा को पहिचानकर निज और पर के स्वरूप का जानना, सो सामान्य सम्यक्त्व है। (४) हेय, ज्ञेय, उपादेय के भेदाभेद को विस्तार रूप से समझना, सो विशेष सम्यक्त्व है ॥ ५१ ॥ चतुर्थ गुणस्थान के वर्णन का उपसंहार (सोरठा) थिति सागर तैतीस, अंतर्मुहरत एक वा । अविरतसमकित रीति, यह चुतुर्थ गुनथान इति ॥ ५२ ॥ अर्थ :- अव्रतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। यह चौथे गुणस्थान का कथन समाप्त हुआ ।। ५२ ।। ... (12) देशविरत अणुव्रतगुणस्थान का वर्णन प्रतिज्ञा (दोहा) अब वरन इकई गुन, अरु बावीस अभक्ष | जिनके संग्रह त्याग सौं, सोभै श्रावक पक्ष ॥ ५३ ॥ अर्थ - जिन गुणों के ग्रहण करने और अभक्ष्यों के त्यागने से श्रावक का पाँचवाँ गुणस्थान सुशोभित होता है, ऐसे इक्कीस गुणों और बाईस अभक्ष्यों का वर्णन करता हूँ ।। ५३ ।। श्रावक के इक्कीस गुण (सवैया इकतीसा ) लज्जावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत, परदोष कौ ढकैया पर उपगारी है। सौमदृष्टि गुनग्राही गरिष्ट सब कौं इष्ट, शिष्टपक्षी मिष्टवादी दीरघ विचारी है । विशेषग्य रसग्य कृतग्य तम्य धरमग्य, नदीनन अभिमानी मध्य विवहारी है। सहज विनीत पापक्रिया सौं अतीत ऐसौ, श्रावक पुनीत इकवीस गुनधारी है ॥ ५४ ॥ शब्दार्थ :- प्रसंत = मंद कषायी । प्रतीतवंत = श्रद्धालु । गरिष्ट = सहनशील । इष्ट = प्रिय शिष्टपक्षी = सत्य पक्ष में सहमत । दीरघ विचारी = अग्रसोची। विशेषज्ञ = अनुभवी । रसज्ञ = मर्म का जाननेवाला । कृतज्ञ = दूसरों के उपकार को नहीं भूलनेवाला । मध्य विवहारी = दीनता और अभिमान रहित । विनीत= नम्र। अतीत = रहित । अर्थ :- लज्जा, दया, मंदकषाय, श्रद्धा, दूसरों के दोष ढाँकना, परोपकार, सौम्यदृष्टि, गुणग्राहकता, सहनशीलता, सर्वप्रियता, सत्य पक्ष, मिष्टवचन, अग्रसोची, विशेषज्ञानी, शास्त्रज्ञान की मर्मज्ञता, कृतज्ञता, तत्त्वज्ञानी, धर्मात्मा, न दीन न अभिमानी मध्य व्यवहारी, स्वाभाविक
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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