SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसारनाटक- गर्भित गुणस्थान अर्थ :- जो ऊपर कही हुई सातों प्रकृतियों को उपशमाता है, वह औपशमिक सम्यग्दृष्टि है । सातों प्रकृतियों का क्षय करनेवाला क्षायिकसम्यग्दृष्टि है, यह सम्यक्त्व कभी नष्ट नहीं होता। सात प्रकृतियों में से कुछ का क्षय हों और कुछ का उपशम हों तो, वह क्षायोपशमसम्यक्त्वी है, उसे सम्यक्त्व का मिश्ररूप स्वाद मिलता है। छह प्रकृतियाँ उपशम हों वा क्षय हों अथवा कोई क्षय और कोई उपशम हो केवल सातवीं प्रकृति सम्यक्त्व मोहनीय का उदय हो तो वह वेदक सम्यक्त्वधारी होता है ।। ४२ ।। सम्यक्त्व नव भेदों का वर्णन (दोहा) क्षयउपसम वरतै त्रिविधि, वेदक च्यारि प्रकार । २० क्षायक उपसम जुगल जुत, नौधा समकित धार ॥ ४३ ॥ शब्दार्थ :- त्रिविधि = तीन प्रकार का जुगल = दो। जुत = सहित । अर्थ :- क्षायोपशमिकसम्यक्त्व तीन प्रकार का है, वेदकसम्यक्त्व चार प्रकार का है और उपशम तथा क्षायिक ये दो भेद और मिलाने से सम्यक्त्व के नव भेद होते हैं ।।४३ ॥ क्षायोपशमिकसम्यक्त्व के तीन भेदों का वर्णन (दोहा) च्यारि विपै त्रय उपसमै, पन क्षय उपसम दोइ । क्षय षट् उपसम एक यौं, क्षयउपसम त्रिक होइ ॥ ४४ ॥ अर्थ :- (१) चार' का अर तीन' का उपशम, (२) पाँच' का क्षय दो का उपशम, (३) छह' का क्षय एक का उपशम, इसप्रकार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के तीन भेद हैं ।।४४ ॥ वेदकसम्यक्त्व के चार भेद (दोहा) जहाँ च्यारि परकिति खिपहिं, द्वै उपसम इक वेद । छय-उपसम वेदक दसा, तासु प्रथम यह भेद ||४५ || पंच विपैं इक उपसमै, इक वेदै जिहि ठौर । सो छय-उपसम वेदकी, दसा दुतिया यह और ||४६ ॥ १. अनन्तानुबंधी की चौकड़ी २. दर्शनमोहनीय का त्रिक। ३. अनंतानुबंधी चौकड़ी और महामिथ्यात्व । ४. मिश्रमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति । ५. अनंतानुबंधी चौकड़ी, महामिथ्यात्व और मिश्र । (11) अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान क्षय षट् वेदै एक जो, क्षायक वेदक सोइ । षट उपसम इक प्रकृति विद, उपसम वेदक होइ ॥ ४७ ॥ अर्थ :- (१) जहाँ चार' प्रकृतियों का क्षय, दो का उपशम और एक का उदय है वह प्रथम क्षायोपशमिकवेदकसम्यक्त्व है। (२) जहाँ पाँच* प्रकृतियों का क्षय, एक' का उपशम और एक का उदय है, वह द्वितीय क्षायोपशमिकवेदकसम्यक्त्व है। (३) जहाँ छह प्रकृतियों का क्षय और एक का उदय है वह क्षायिकवेदकसम्यक्त्व है, (४) जहाँ छह प्रकृतियों का उपशम और एक का उदय है वह औपशमिकवेदकसम्यक्त्व है ।।४५-४६-४७ ।। यहाँ क्षायिक व औपशमिकसम्यक्त्व का स्वरूप न कहने का कारण २१ (दोहा) उपसम क्षायक की दसा, पूरव षट् पद मांहि । कहीं प्रगट अब पुनरुकति, कारन वरनी नांहि ॥ ४८ ॥ शब्दार्थ :- पुनरुकति (पुनरुक्ति) = बार-बार कहना । अर्थ :- क्षायिक और औपशमिकसम्यक्त्व का स्वरूप पहले ४२ वें छप्पय छन्द में कह आये हैं; इसलिये पुनरुक्ति दोष के कारण यहाँ नहीं लिखा ।।४८ ।। नव प्रकार के सम्यक्त्वों का विवरण (दोहा) क्षय-उपसम वेदक विपक, उपसम समकित च्यारि । तीन च्यारि इक इक मिलत, सब नव भेद विचारि ॥ ४९ ॥ अर्थ :- क्षायोपशमिकसम्यक्त्व तीन प्रकार का, वेदकसम्यक्त्व चार प्रकार का और औपशमिकसम्यक्त्व एक तथा क्षायिकसम्यक्त्व एक, इसप्रकार सम्यक्त्व के मूल भेद चार और उत्तर भेद नव हैं ।। ४९ ।। प्रतिज्ञा (सोरठा) अब निश्चै व्यवहार, अरु सामान्य विशेष विधि । कहौं च्यारि परकार, रचना समकित भूमि की ॥ ५० ॥ अर्थ :- सम्यक्त्वरूप सत्ता की निश्चय, व्यवहार, सामान्य और विशेष ऐसी चार विधि कहते हैं ।। ५० ।। १. अनन्तानुबंधी की चौकड़ी। २. महामिथ्यात्व और मिश्र । ३. सम्यक्प्रकृति । ४. अनन्तानुबंधी चौकड़ी और महामिथ्यात्व । ५. मिश्र । ६. अनन्तानुबंधी की चौकड़ी, महामिथ्यात्व और मिश्र । ७. अनन्तानुबन्धीकी चौकड़ी, महामिथ्यात्व और मिश्र ।
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy