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गागर में सागर
के लाभ के कारण ही तोड़ता है, सेठजी के प्रति द्वेष के कारण नहीं । यदि उसे सेठ से द्वेष होता तो वह मेठजी की तिजोरी नहीं तोड़ता, खोपड़ी खोलता | इसीप्रकार समस्त बाह्य परिग्रह जोड़ने के मूल में बाह्य वस्तुओं के प्रति राग ही कार्य करता है ।
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माता-वहिनों की इज्जत भी रागी ही लूटते हैं, द्वेषी नहीं । इतिहास उठाकर देख लो, आजतक जितनी भी माता-बहिनों की इज्जत लुटी है, वह रागियों ने ही लूटी है, द्वेषियों ने नहीं । आप प्रतिदिन प्रातःकाल समाचारपत्र पढ़ते हैं । उनमें यह लिखा तो मिलता है कि एक गोरी-भूरी सुन्दर युवती क्रीम पाउडर लपेटे, तंग वस्त्र पहिने, हँसती-खेलती तितली-सी बनी बाजार में जा रही थी तो कुछ कॉलेजी लड़कों ने उससे छेड़खानी की; पर आपने यह कभी नहीं पढ़ा होगा कि एक काली-कलूटी, सफेद बालों वाली, घिनोनी-सी गंदी लड़की रोतीरोती सड़क पर जा रही थी और उससे किसी ने छेड़खानी की ।
भाई ! छेड़खानी का पात्र भी वही होता है, जिसे देखकर हमें राग उत्पन्न हो ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पाँचों पापों की मूल जड़ एकमात्र रागभाव ही है । यही कारण है कि कविवर पण्डित दौलतरामजी छहढाला में लिखते हैं :
"यह राग प्राग दहे सदा तातं समामृत सेइये । चिर भजे विषय कषाय अब तो त्याग निज पद वेइये ।।"
भाई ! यह राग तो ऐसी आग है, जो सदा जलाती ही है । जिसप्रकार ग्राम सदियों में जलाती है, गर्मियों में जलाती है; दिन को जलाती है, रात को जलाती है; सदा जलाती ही है । उसीप्रकार यह राग भी सदा दुःख ही देता है । जिसप्रकार चाहे नीम की हो, चाहे चन्दन की; पर आग तां जलाने का ही काम करती है । ऐसा नहीं है कि नीम की ग्राग जलाये और चंदन की ग्रांग ठंडक पहुँचाये । भाई ! चन्दन भले ही शीतल हो, शीतलता पहुँचाता हो; पर चन्दन की ग्राग तो जलाने का ही काम करेगी। भाई ! ग्राग तो ग्राग है; इसमे कुछ अन्तर नहीं पड़ता कि वह नीम की है या चन्दन की ।
उसीप्रकार राग चाहे अपनों के प्रति हो या परायों के प्रति हो; चाहे अच्छे लोगों के प्रति हो या बुरे लोगों के प्रति हो; पर है तो वह