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सम्पादकीय
पावन वनस्थली में आत्मसाधनारत रहे। वहीं पर उन्होंने १४ ग्रन्थों की रचना की थी। उन्होंने ६० वर्ष की उम्र में दिगम्बरी मुनिदीक्षा ग्रहण की थी। ६७ वर्ष की उम्र में वे दिवंगत हो गये थे।
आज उनके अनुयायी समैया या तारण समाज के नाम से जानेपहचाने जाते हैं । तारण समाज का परिचय देते हुए ब्रह्मचारी स्वर्गीय श्री शीतलप्रसादजी ने लिखा है कि - "ये चैत्यालय के नाम से सरस्वती भवन बनाते हैं । वेदी पर शास्त्र विराजमान करते हैं । यद्यपि इनके यहाँ जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा रखने व पूजन करने का रिवाज नहीं है। तथापि ये लोग तीर्थयात्रा करते हैं, मन्दिरों में यत्र-तत्र प्रतिमाओं के दर्शन भी करते हैं।"
पूज्य तारणस्वामी के ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट भासित होता है कि उन पर कुन्दकुन्द स्वामी का काफी प्रभाव था। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, अष्टपाहड़ आदि ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था। योगीन्दुदेव के परमात्मप्रकाश व योगसार भी उनके अध्ययन के अभिन्न अंग रहे होंगे। निश्चय ही तारणस्वामी कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों के ज्ञाता थे। उन्होंने यत्र-तत्र विहार करके अपने अध्यात्मभित उपदेश से जैनधर्म का प्रचार किया।
श्री तारणस्वामी के विषय में एक यह किंवदन्ती प्रचलित है कि उनके उपदेश से पूरी "हाट" अर्थात् हजारों जैनाजन जनता उनकी अनुयायी बन गयी थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वे स्वयं तो परवार जातीय दिगम्बर जैन थे और उनके अनुयायी तारण समाज में आज भी अनेक जातियों के विभिन्न गोत्रों के लोग सम्मिलित हैं। ___ कहा भी जाता है कि उनके उपदेश से प्रभावित होकर पांच लाख तिरेपन हजार तीन सौ उन्नीस (५,५३,३१९) व्यक्तियों ने जैनधर्म अंगीकार कर लिया था। उनके निम्नांकित प्रमुख शिष्यों में विभिन्न वर्ग और जातियों के नाम हैं, जैसे:- लक्ष्मण पाण्डे, चिदानन्द चौधरी, परमानन्द विलासी, सत्यासाह तेली, लुकमान शाह मुसलमान ।
इसप्रकार हम देखते हैं कि तारणस्वामी जाति, धर्म एवं ऊंचनीच वर्ग के भेद-भाव से दूर उदार हृदय वाले संतपुरुष थे तथा वे 'तारणतरण पावकापार भूमिका, पृष्ठ ४