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________________ गागर में सागर इसीप्रकार और भी अनेक स्थलों पर देव शास्त्र - गुरु को बाहर में न देखकर अन्तर श्रात्मा में देखने की प्रेरणा देकर बाहर में हुवे उपद्रवं से चित्त हटाकर और अन्तर आत्मा का यथार्थ ज्ञान देकर प्रात्मज्ञान सम्बन्धी अज्ञान हटाया है । ७ बस फिर क्या था, मानों डूबतों को तारणहार मिल गया और इधर तारणस्वामी के भी एक साथ दो काम बन गये। एक ओर तो जो तत्वज्ञान से शून्य थे, केवल बाह्य क्रिया काण्ड में ही अटके थे; उन्हें तत्त्वदृष्टि मिली तथा दूसरी ओर अपने परमपूज्य आराधना के केन्द्रस्थल बीतरागी जिनबिम्ब और जिनमन्दिरों के विध्वंस से जो प्राकुलव्याकुल थे; उनको व्याकुलता कम हुई, उनका मानस पलटा । इसप्रकार दुखसागर में निमग्न प्राणियों ने शांति की साँस ली । लगता है उन्हें अपना तारणतरण मानकर उनके अनुयायियों ने ही उनका यह "श्री जिन तारणतररणस्वामी" नाम प्रचलित किया, जिसे बाद में धीरे-धीरे उन्हें भी वह नाम स्वीकृत हो गया । जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा भी है : "जिनउवएसं सारं किचित् उवएस कहिय सद्भावं । तं नितारण रहयं कम्मक्षय मुक्तिं कारणं सुद्धं ॥ अर्थात् जिनेन्द्र भगवान का जो उपदेश है, उसके कुछ अंश को लेकर 'जिनताररण' नाम से प्रसिद्ध मैंने इस ग्रन्थ की रचना की है ।" " उनके नाम में जो 'श्री जिन' विशेषरण लगा है, वह निश्चय ही जिनेन्द्र भगवान के अर्थ में नहीं है, परन्तु जिनेन्द्र के भक्त के अर्थ में अवश्य है तथा दिगम्बर मुनि से वे एदेकश जितेन्द्रिय होने से जिनेन्द्र के लघुनन्दन तो थे ही तथा चौथे गुरणस्थान वाले को भी जिनवाणी में 'जिन' संज्ञा से अभिहित किया गया है । दिगम्बर प्राचार्य परम्परा के शुद्धाम्नायी संत मुनि श्री तारणस्वामी निःसंदेह एक महान क्रान्तिकारी युगपुरुष थे। वे बचपन से ही 'उदासीन वृत्तिवाले थे । कहा जाता है कि उन्होंने विवाह नहीं किया था । वे यौवनारम्भ से ही शाश्वत शान्ति की खोज में सांसारिक सुखों के मोह का परित्याग करके विघ्य भूमि की ओर चले गये थे । जीवन के उत्तरार्द्ध में वे मल्हारगढ़ ( म०प्र०) के समीप बेतवा नदी के निकट १ ज्ञानसमुच्चयसार, श्लोक १०६ -
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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