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गाथा ८६७ पर प्रवचन
भाई ! धर्म करने के लिए जाति की कोई शर्त नहीं है, भगवान प्रात्मा के अनुभव करने की शर्त अवश्य है।
धर्म तो वस्तु के स्वभाव को कहते हैं। कोई व्यक्ति वस्तु का स्वभाव तो समझे नहीं और धर्म करना चाहे तो कैसे होगा ? अग्नि के स्वभाव को समझे बिना कोई अग्नि को ठंडी बताता फिरे, समझाने पर भी स्वीकार न करे तो उसके मानने मात्र से, कहने मात्र से अग्नि ठंडी तो नहीं हो जावेगी।
उससे कहें कि भाई ! विवाद क्यों करते हो ? एक बार तो छूकर तो देखो। तब वह कहता है कि मैं क्यों देखें ? मैं क्यों खतरा मोल लं? आप ही देखो । पर भाई ! जब तुम उसे ठंडी ही मानते हो तो खतरा कहाँ है ? हम तो उसे गरम मानते हैं; अतः हमें तो उसमे खतरा हो सकता है, पर तुम्हें कैसे ? |
जबतक कोई तर्कसंगत बात मानने को तैयार न हो, तो फिर क्या हो सकता है ? लोग स्वयं विचार करते नहीं और समझाने पर भी स्वीकार न करें तो क्या करें ? तुम कुछ भी मानते रहो, पर अग्नि तो अपना स्वभाव छोड़नेवाली नहीं है । इसीप्रकार जगत कुछ भी माने, पर भगवान प्रात्मा तो अपना ज्ञानानन्द स्वभाव छोड़नेवाला नहीं है, यदि हमें धर्म करना है, सुखी होना है, तो निज भगवान आत्मा के ज्ञानानन्द स्वभाव को समझना ही होगा।
भाई ! पर को भी जानना प्रात्मा का स्वभाव है; पर पर को तो मात्र जानना ही है, अपने को जानना भी है, पहिचानना भी है, उसी में जमना भी है, रमना भी है । पर को जानकर उससे उपयोग को हटाना है और अपने को जानकर उसमें उपयोग को जमाना है, उसी में जम जाना है, रम जाना है। ___ यह सम्पूर्ण ज्ञान का सार है, यही समयसार है, ज्ञानसमुच्चयसार है । भाई ! जीवन में करने योग्य कार्य एकमात्र यही है; अतः समस्त जगत से दृष्टि हटाकर एक भगवान आत्मा पर ही उपयोग केन्द्रित करो।
माई ! यह जीवन यों ही विषय-कषाय में चला जायगा। अतः समय रहते चेत जाने में ही सार है । अधिक क्या कहें ? सभी पारमार्थी जीव तारणस्वामी के उपदेश को, आदेश को शिरोधार्य कर निज भगवान आत्मा को जानें, पहिचानें और उसी में जम जाएँ. रम जाएँइस पावन भावना से विराम लेता हूँ।