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गागर में सागर
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दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के बाद लगभग छह सौ वर्ष तक तो संपूर्ण ज्ञान श्रुत ( सुनने) के आधार पर ही चला । जब स्मृति कमजोर होने लगी और श्रुतज्ञान परम्परा के नष्ट होने की संभावना प्रतीत होने लगी तो पूर्वश्रुतज्ञान को निबद्ध किए जाने का उपक्रम आरंभ हुआ । प्रथम श्रुतस्कंध को प्राचार्य धरसेन के शिष्य भूतबली - पुष्पदंत ने एवं द्वितीय श्रुतस्कंध को प्राचार्य कुंदकुंद ने लिखकर सुरक्षित किया ।
उक्त श्रुतपरम्परा की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए हो तारणस्वामी बारंबार "पूर्व उक्त" शब्द का प्रयोग करते देखे जाते हैं ।
वे यह कहकर अपने पाठकों को आश्वस्त करना चाहते हैं कि मैं अपनी कल्पना से कुछ नहीं कह रहा हूँ; अपितु जो भी कह रहा हूँ, वह सर्वज्ञ की परम्परा से चली आ रही श्रुतपरम्परा का ही सार है ।
जगत में जब सर्वनाश का संकट उपस्थित होने लगता है तो चतुर व्यक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण - सर्वाधिक मूल्यवान वस्तु को जान की बाजी लगाकर भी सुरक्षित करना चाहते हैं । मात्र चाहते ही नहीं, अपितु पूरी शक्ति लगाकर उसे सुरक्षित कर देते हैं ।
जब हमारे धर्मपूर्वजों ने देखा कि वीतरागी सर्वज्ञ द्वारा निरूपित सुख-शान्ति का मार्ग स्मृतिभ्रंशता के कारण संकटापन्न है तो उन्होंने पूरी शक्ति लगाकर उसे लिपिबद्ध कर सुरक्षित कर दिया; क्योंकि उसके बिना लोगों का धर्म से च्युत हो जाना अनिवार्य था, आत्मा की उपासना का मार्ग समाप्त हो जाने की संभावना स्पष्ट प्रतिभासित हो रही थी ।
हम उन आचार्य भगवन्तों का जितना उपकार मानें, कम है; जिन्होंने अत्यन्त करुरणा करके आत्महितकारी जिनवारणी लिपिबद्ध करके सुरक्षित कर दी। उन्होंने हम सब पर अनन्त अनन्त उपकार किया है । तारणस्वामी ने उसी जिनवारणी का सहारा लेकर जो भी आत्महितकारी सन्मार्ग प्राप्त किया था, स्वयं के हित के लिए तो उसका भरपूर उपयोग किया ही, जगत को भी दिल खोलकर बाँटा ।
इस ७६वीं गाथा के पूर्वार्द्ध में यह कहकर कि हम जो कह रहे हैं, वह द्वादशांग वाणी का ही सार है, पूर्वाचार्यों की परम्परा से समागत ज्ञान का ही सार है; अब उत्तरार्द्ध में उस सार को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि शरीर के साथ रहनेवाला मेरा श्रात्मा ही परमात्मा है ।