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गाथा ७६ पर प्रवचन इस ७६वीं गाथा में तारणस्वामी कहते हैं :"पूर्व पूर्व उक्त च द्वादशांगं समुच्चयं । ममात्मा अंग साधं च प्रात्मनं परमात्मनं ॥७६।।
तीर्थकर भगवान सर्वज्ञदेव, गणघरदेव एवं सम्पूर्ण आचार्य परम्परा द्वारा पूर्वोक्त जो बारह अंग और चौदह पूर्वो का समुच्चय ज्ञान है, उसका सार मात्र इतना ही है कि शरीर के साथ रहनेवाला मेरा अात्मा ही परमात्मा है।"
ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो का सार ही यह ज्ञानसमुच्चयसार है । तारणस्वामी यहाँ साफ-साफ कहते हैं कि इस "ज्ञानसमुच्चयसार" ग्रन्थ में मेरा अपना कुछ भी नहीं है। मैने तो मात्र वही कहा है, जो "पूर्व उक्त" है । इस "पूर्व-उक्त" शब्द का प्रयोग इस 'ज्ञानसमुच्चयसार' ग्रन्थ में सैकड़ों बार हुआ है । हर दो-चार गाथाओं के बाद इसका प्रयोग मिल जायगा।
"पूर्व-उक्त" का तात्पर्य यही है कि तीर्थकर भगवान ने समवशरण में गणधर और सौ इन्द्रों की उपस्थिति में जो उपदेश दिया था, जिसे गौतमादि गणधरों ने द्वादशांग के रूप में निबद्ध किया था और जो कुंदकुंदाचार्य की परम्परा से मुझे प्राप्त हुआ है, वही मैं यहाँ इस ज्ञानसमुच्चयसार नामक ग्रन्थ में कह रहा हूँ।
धर्मपूर्वजों से चला आया ज्ञान ही पूर्वज्ञान कहा जाता है । आगम शब्द से भी यही भाव व्यक्त होता है कि जो ज्ञान पहले से ही चला आ रहा है, वही ज्ञान आगमज्ञान है ।
___ "उक्त" शब्द यह बताता है कि यह ज्ञान केवली द्वारा कथित है। पूर्वलिखित न लिखकर पूर्व-उक्त लिखा है, क्योंकि देशनालब्धि सुनने से होती है, पढ़ने से नहीं। 'उक्त' सुना जाता है और 'लिखित' पढ़ा जाता है।
इसप्रकार तारणस्वामी यह कहना चाहते हैं कि इस ज्ञानसमुच्चयसार में कहा हुआ जो भी ज्ञान है, ज्ञान का सार है, वह सब पूर्वश्रुतज्ञान है अर्थात् पूर्वाचार्यों द्वारा कहा हुआ और हमारा सुना हुआ ज्ञान है, अतः पूर्वश्रुतज्ञान है । संपूर्ण श्रुतज्ञान का सार होने से यह शास्त्र सचमुच ही ज्ञानसमुच्चयसार है।