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गाथा ४४ पर प्रवचन
इस ग्रन्थ में अनेक गाथाएँ तो ऐसी हैं कि जिन्हें पढ़कर हृदय आन्दोलित हो जाता है, आनन्दित हो जाता है ।
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यह चवालीसवीं गाथा भी एक ऐसी ही अद्भुत गाथा है कि जिसमें द्वादशांग का सार समाहित हो गया है ।
तारणस्वामी ने इस गाथा में निज भगवान शुद्धात्मा का स्वरूप समझाया है । मूल गाथा इसप्रकार है :
ममात्मा ममलं शुद्धं ममात्मा शुद्धात्मनम् । देहस्थोऽपि प्रदेही च ममात्मा परमात्मं ध्रुवम् ॥४४॥ |
इस गाथा में निज शुद्धात्मा की बात कही गई है । इसमें कहा गया है कि मेरा यह ध्रुव ग्रात्मा अत्यन्त अमल है, पूर्ण शुद्ध है । देह में विराजमान यह मेरा ग्रात्मा स्वयं प्रदेहो है और स्वयं ही परमात्मा है ।
इस गाथा में जो बात कही गई है, वह किसी अन्य भगवान ग्रात्मा की बात नहीं है । इसमें निज भगवान ग्रात्मा की ही बात है, ग्रपने ग्रात्मा की ही बात है ।
मेरा ग्रात्मा अर्थात् मैं । मैं ही पूर्ण अमल हूँ, मैं ही पूर्ण शुद्ध हूँ, रागादि विकारी भाव मेरे स्वभाव में नहीं हैं, मैं गगादि विकारी भावरूप नहीं हूँ । यह बात ही यहाँ जोर देकर कही गई है ।
यद्यपि मेरी वर्तमान पर्याय में मोह-राग-द्रेपादि भाव पाये जाते हैं, तथापि वे श्रात्मा के स्वभावभाव नहीं हैं, विकार हैं, विकृतियाँ हैं । विकार और विकृतियाँ वस्तु नहीं हुआ करतीं । यद्यपि ये विकार आत्मवस्तु में ही उत्पन्न होते हैं, तथापि वे प्रात्मवस्तु कदापि नहीं हो सकते ।
यद्यपि फोड़ा देह में ही पैदा होता है; पर वह देह तो नहीं होता, उमे देह तो नहीं माना जाता; क्योंकि वह देह की विकृति है । इसीप्रकार ये रागादि भाव आत्मा में पैदा होकर भी ग्रात्मा नहीं हो सकते, क्योंकि आत्मा की विकृतियाँ हैं ।
यदि इन रागादि भावों को ही ग्रात्मा मान लिया जाय तो फिर इन्हें आत्मा से अलग नहीं किया जा सकता है । चूंकि इन्हें आत्मा से अलग किया जा सकता है, अतः ये ग्रात्मा नहीं हो सकते हैं ।
अरे भाई ! यदि आत्मा का हित करना है तो यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए ।