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________________ गागर में सागर ज्ञानसमुच्चयसार गाथा ४४ पर प्रवचन ( मंगलाचरण ) जो एक शुद्ध विकारवजित अचल परमपदार्थ है । जो एक ज्ञायकभाव निर्मल नित्य निज परमार्थ है ।। जिसके दरश व जानने का नाम दर्शन-ज्ञान है । हो नमन उस परमार्थ को जिसमें चरण हो ध्यान है || यह "ज्ञानसमुच्चयसार" नामक अध्यात्म-ग्रन्थ है । इसे आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व ग्रात्मानुभवी दिगम्बर संत श्री तारणस्वामी ने लिखा था । ग्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार के समान ही यह ग्रन्थ भी अध्यात्मरस से सराबोर है । तारणस्वामी के ग्रन्थों पर प्राचार्य कुन्दकुन्द का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । नारणस्वामी ने इस ग्रन्थ में गागर में सागर भर दिया है । बड़े ही सौभाग्य की बात है कि आज हम अध्यात्म- अमृत के सागर से भरी इस गागर के मुख को सागर में ही खोल रहे हैं और इस गागर में समाहित मृतसागर का रसपान लगातार पाँच दिन तक करेंगे। तारणजयन्ती का यह स्वर्ग ग्रवसर हम सभी को सदा याद रहेगा । तारणस्वामी का सच्चा परिचय हमें गुरुदेव श्री कानजी स्वामी द्वारा उनके ग्रन्थों पर किए गए प्रवचनों से प्राप्त हुआ था । ग्रष्ट-प्रवचन नाम से अनेक भागों में प्रकाशित उनके प्रवचनों से ही ताररणस्वामी के ग्रन्थों के पढ़ने की प्रेरणा भी प्राप्त हुई । यह "ज्ञानसमुच्चयसार" ग्रन्थ न केवल तारण समाज की, अपितु संपूर्ण जैन समाज की मूल्य सम्पत्ति है, जिसे ग्राजतक हमने खोलकर भी नहीं देखा । तारणस्वामी ने इसमें ऐसी-ऐसी सुन्दर बातें लिखी हैं कि सारा जैन समाज ग्राँख खोलकर देखे तो उसे मालूम पड़े कि तारणस्वामी क्या थे ?
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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