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सम्पादकीय
अब तक उनके द्वारा लिखित २७ पुस्तकें अनेक भाषाओं में तेरह लाख से भी अधिक संख्या में प्रकाशित हो चुकी हैं।
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यह पहला प्रयोग है, जब उनके प्रवचनों को सम्पादित करके पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है, परन्तु मुझे तो ऐसा लगता है कि उनके लेखन से भी उनके प्रकाशित प्रवचन अधिक लोकप्रिय होंगे; क्योंकि लेखन में तुलनात्मक दृष्टि से भाषा-शैली फिर भी दुरूह हो जाती है, किन्तु प्रवचनों में यह शिकायत नहीं रहती ।
पंचकल्याणक प्रसंगों पर एवं शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों में तथा महावीर जयन्ती आदि प्रसंगों पर हुये उनके प्रवचन भी प्रकाशित होने चाहिये; किन्तु यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि प्रस्तुत प्रवचनों से पाठक कितना लाभ उठाते हैं ? तथा कैसी / क्या आवश्यकता अनुभव करते हैं ?
प्रवचनकार के मुख से प्रवचनों को प्रत्यक्ष सुनने का लाभ तो अपनी जगह महत्त्वपूर्ण है ही, क्योंकि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में देशनालब्धि को ही निमित्त कहा है, पढ़ने को नहीं; किन्तु उन्हीं प्रवचनों को पुस्तक के माध्यम से पढ़ने का आनन्द भी कोई जुदी जाति का होता है । वे एक-दूसरे के पूरक तो हो सकते हैं, किन्तु एक-दूसरे की पूर्ति नहीं कर सकते ।
जहाँ प्रत्यक्ष सुनने में वाणी के सिवाय वक्ता के हाव-भाव भी समझने में सहयोगी होते हैं, वहीं चित्त की चंचलता एवं प्रास-पास का वातावरण उसमें बाधक भी कम नहीं होता तथा नाना प्रकार के श्रोताओं के कारण वक्ता को भी विस्तार बहुत करना पड़ता है, अतः अधिक समय में बहुत कम विषयवस्तु हाथ लगती है ।
प्रकाशित प्रवचनों में यद्यपि वक्ता के हाव-भावों का लाभ नहीं है, परन्तु उन्हें शान्ति में चित्त स्थिर करके एकान्त से बैठकर पढ़ा जा सकता है, एक बार समझ में न आये तो बार-बार भी पढ़ा जा सकता है तथा प्रवचन में वक्ता के साथ अपने उपयोग को दौड़ाना पड़ता है, जो बात सुनने-समझने या ग्रहण करने से रह गई, सो रह गई; क्योंकि वहाँ पुनरावृत्ति का कोई अवसर नहीं रहता ।
प्रकाशित प्रवचनों के सम्पादन में अनावश्यक कलेवर, जो केवल जनता को कन्ट्रोल में रखने के लिए या उसके मनोरंजन के लिए बोला