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चौदह गुणस्थान
४. ब्रह्मचर्य सहित निरतिचार व्रती जीवन -
जैसा कि हम पहले बतला आये हैं अपने जन्म-समय से लेकर पिछले ३० वर्ष स्वामीजी को, शिक्षा और दूसरे प्रकार अपनी आवश्यक तैयारी में लगे। इस बीच उन्होंने यह भी अच्छी तरह जान लिया कि मूल संघ कुन्दकुन्द आम्नाय के भट्टारक भी किस गलत मार्ग से समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं। उसमें उन्हें मार्गविरुद्ध क्रियाकाण्ड की भी प्रतीत हुई । अतः उन्होंने ऐसे मार्ग पर चलने का निर्णय लिया जिस पर चलकर भट्टारकों के पूजा आदि सम्बन्धी क्रियाकाण्ड की अयथार्थता को समाज हृदयंगम कर सके। किन्तु इसके लिये उनकी अब तक जितनी तैयारी हुई थी उसे उन्होंने पर्याप्त नहीं समझा।
उन्होंने अनुभव किया कि जब तक मैं अपने वर्तमान जीवन को संयम से पुष्ट नहीं करता तब तक समाज को दिशादान करना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि ३० वर्ष की जवानी की उम्र में सर्व प्रथम वे स्वयं को व्रती बनाने के लिए अग्रसर हुए। छद्मस्थवाणी के 'मिथ्याविली वर्ष सात' इत्यादि वचनों से ज्ञात होता है कि उन्होंने मिथ्यात्व, माया और निदान इन तीन शल्यों के त्यागपूर्वक इस उम्र में व्रत स्वीकार किये। जिनमें उत्तरोत्तर विशुद्धि उत्पन्न करते हुए वे इस पद पर सात वर्ष तक रहे।
उन्होंने अपनी रचनाओं में जनरंजन राग, कलरंजन दोष और मनरंजन गारव को त्यागने का पद-पद पर उपदेश किया है। यहाँ जनरंजन राग से चारों प्रकार की विकथायें ली गई है। कलरंजन दोष से दस प्रकार के अब्रह्म को ग्रहण किया गया है और मनरंजन गारव से सम्यक्त्व के २५ मल लिये गये हैं। इससे मालूम पड़ता है कि आपने व्रती जीवन में उन्होंने इन सब दोषों के परिहारपूर्वक पूर्ण ब्रह्मचर्य का भी सम्यक् प्रकार से पालन किया। ५. मुनि जीवन -
स्वयं को अध्यात्ममय सांचे में ढालने के लिए और अपने संकल्प के अनुसार समाज को मार्गदर्शन करने के लिए उन्हें जो भी करणीय था उसे
श्री जिनतरण-तारण स्वामीजी का परिचय वे ६० वर्ष की उम्र होने तक सम्पन्न कर चुके थे। संयम के अभ्यास द्वारा उन्होंने अपने चित्त को पूर्ण विरक्त तो बना ही लिया था, अतः वे अन्य सब प्रयोजनों से मुक्त होकर पूरी तरह से आत्मकार्य सम्पन्न करने में जुट गये। (१) ठिकानेसार (खुरई) पत्र २२१ (३) ठिकानेसार (ब्र.जी.) पत्र ८५। अर्थात् उन्होंने श्रावक पद की निवृत्ति पूर्वक मुनि पद अंगीकार कर लिया। छद्मस्थवाणी के उत्पन्न भेष उवसग्ग सहन इत्यादि वचन से भी यही ध्वनित होता है कि साठ वर्ष की उम्र होने पर उन्होंने नियम से श्रावक पद से निवृत्ति ले ली होगी और मुनिपद अंगीकार कर वे पूर्ण रूप से संयमी बन गये होंगे।
इस पद पर वे अनेक प्रकार के मानवीय तथा दूसरे प्रकार के उपसर्गों को सहन करते हुए ६ वर्ष ५ माह १५ दिन रहे और जेठ वदी सप्तमी सं. १५७२ को इहलीला समाप्त कर स्वर्गवासी हुए। ___ यह स्वामीजी का संक्षिप्त जीवन-परिचय है। इसे हमने छद्मस्थवाणी के मिथ्याविली वर्ष ग्यारह इत्यादि के आधार पर लिपिबद्ध किया है। यद्यपि छद्मस्थवाणी के उक्त वचन गूढ़ हैं पर उनमें स्वामीजी की जीवनकहानी ही लिपिबद्ध हुई है, यह पूरे प्रकरण पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है। उनकी जीवनी को लिपिबद्ध करते समय हमने छद्मस्थवाणी के उक्त वचनों को और तात्कालिक परिस्थिति को विशेष रूप से ध्यान में रखा है। इसमें हमने अपनी ओर से कुछ भी मिलाया नहीं है और न उनके विषय में फैली अनेक उलट-पुलट मान्यताओं की ही चर्चा की है।
स्वामीजी का जीवन गौरवपूर्ण था। वे छल प्रपंच से बहुत दूर थे। भय उनके जीवन में कहीं भी नहीं था। उन्हें अनादिनिधन अपने ज्ञायकस्वभाव आत्मा का पूर्ण बल प्राप्त था। वे उसके लिये ही जिये
और उसकी भावना के साथ ही स्वर्गवासी हुए। ऐसे दृढ़ निश्चयी महान् आत्मा के अनुरूप हमारा जीवन बने, यह भावना है।
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