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श्री जिनतरण-तारण स्वामीजी का परिचय
जाति
श्री जिनतरण-तारण स्वामीजी का
संक्षिप्त परिचय माता का नाम - वीरश्री पिता का नाम - गढा शाह जन्म का स्थान - पुष्पावती नगरी
- गाहामूरी बासल्ल गोत्र परवार (पोरपट्ट) जन्म
- अगहन सुदी ७ गुरुवार, विक्रम सं. १५०५ मामा का गाँव ___ - सेमरखेड़ी सल्लेखना मरण - जेठ बदी ७ शनिवार, वि.सं. १५७२ जीवन-काल - ६६ वर्ष ५ माह, १५ दिन
छद्मस्थवाणी के आधार पर स्वामीजी के समग्र जीवन को पाँच भागों में विभक्त किया जा जा सकता है :
(१) बाल जीवन (२) शास्त्राभ्यास जीवन (३) स्वात्मचिन्तनमनन जीवन (४) ब्रह्मचर्य सहित निरतिचार व्रती जीवन (५) मुनि जीवन । १. बाल जीवन -
बाल जीवन में स्वामीजी के ११ वर्ष व्यतीत हुए। इस काल में स्वामीजी ने लौकिक और प्रारंभिक धार्मिक शिक्षा द्वारा एतद्विषयक मिथ्यात्व (अज्ञान) को दूर किया। हो सकता है कि वे ५ वर्ष की अवस्था में अपने पिताजी के साथ अपने मामाजी के यहाँ गये हों और गढ़ौला ग्राम में उनकी चन्देरी पट्ट के अधीश भ. देवेन्द्रकीर्ति से भेंट हुई हो।
यह भी सम्भव है कि उस भेंट के समय भ. देवेन्द्रकीर्ति ने यह अभिमत प्रकट किया हो कि आप का यह बालक होनहार है। इसके शारीरिक चिह्न और हस्तरेखायें ऐसी हैं जो स्पष्ट करती हैं कि यह बालक महान् तपस्वी होकर लाखों का कल्याण करेगा।
२. शास्त्राभ्यास जीवन -
स्वामीजी की भेंट भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति से तो पहले ही हो गई होगी और उन्होंने अपने कानों से अपने विषय में उनका अभिमत भी जान लिया होगा, इससे सहज ही स्वामीजी का मन उनके (भ. देवेन्द्रकीर्ति के) सम्पर्क में रह कर शास्त्राभ्यास करने का हुआ हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। अतएव लगता है कि ११ वर्ष के होने पर वे अपने परिवार से विदा होकर उनके पास शास्त्राभ्यास के लिए चले गये होंगे।
समय शब्द, छह द्रव्य, नौ पदार्थ और द्रव्य श्रुत दोनों के अर्थ में आता है। अतः 'समय मिथ्या विली वर्ष दस' से प्रकृत में यही अर्थ फलित होता है कि ११ वर्ष के होने पर २२ वर्ष की उम्र के होंगे तब स्वामीजी ने अपने शिक्षागुरु की शरण में रहकर शास्त्रीय अभ्यास द्वारा अपने शास्त्र विषयक (अज्ञान) को दूर किया। ३. स्वात्मचिन्तन मनन जीवन -
स्वामीजी का जीवन तो दूसरे साँचे में ढलना था, उन्हें कोई भट्टारक तो बनना नहीं था, इसलिये लगता है कि वे २१ वर्ष की उम्र होने पर अपने शिक्षागुरु का सानिध्य छोड़कर सेमरखेड़ी अपने मामा के घर चले आये होंगे और वहाँ के शांत निर्जन प्रदेश को पाकर एकान्त में स्वात्मचिन्तन मनन में लग गये होंगे । यहाँ सेमरखेड़ी से कुछ दूर पहाड़ी प्रदेश है, उसके परिसर और ऊपरी भाग में चार गुफाओं के सन्निकट एक पहाड़ी नदी है। _प्रदेश बड़ा मनोहर और चित्ताकर्षक है। सम्भव है छद्मस्थवाणी का 'प्रकृति मिथ्या विली वर्ष नौ' यह वचन इसी अर्थ को सूचित करता है कि स्वामीजी ने ऐसा एकान्त निर्जन प्रदेश पाकर ध्यान, चिन्तन, मनन द्वारा अपनी उत्तरकालीन जीवनरेखा यहीं पर स्पष्ट और पुष्ट की। उनके स्वभाव में मार्ग के निर्णय विषयक जो अस्पष्टता थी उसे भी इन नौ वर्षों के चिन्तन-मनन द्वारा दूर किया। अब उनके सामने स्पष्ट ध्येय था, जिस पर चलने के लिये वे परिपक्व हो गये।
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