SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56 बिखरे मोती उन्होंने इसके लिए मात्र धनसंग्रह ही नहीं किया, अपितु इसके माध्यम से ऐसे महान कार्य सम्पन्न किए कि जिनसे आज सम्पूर्ण समाज गौरवान्वित है। उनके लगाए इस पौधे ने दश वर्ष के अल्प काल में एक विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर लिया है, जिसकी छाया में आज तीर्थ सुरक्षित हैं और जीवन्त तीर्थ जिनवाणी फल-फूल रही है। __ वे अपनी इस कृति पर अपने आप ही मुग्ध थे। जब वे इस ट्रस्ट के महाविद्यालय से निकले अध्यात्मरुचि-सम्पन्न व्युत्पन्न विद्वानों को देखतेसुनते तो सब-कुछ भूल जाते। इसीकारण जीवन के अन्तिम काल में साढ़े तीन वर्ष वे श्री टोडरमल स्मारक भवन, बापूनगर, जयपुर में ही रहे । यहाँ से हो रही तत्त्वप्रभावना एवं विद्वानों की भावी-पीढ़ी के निर्माण को देखकर उनका चित्त सदा उल्लसित रहता था। जिनवाणी-प्रकाशन एवं तत्त्वप्रचार संबंधी समस्त गतिविधियों में वे जीवन के अन्तिम क्षण तक रुचि लेते रहे। जीवन के अन्तिम तीन वर्षों में जब वे बिना सहारे और सहयोगी बिना चल-फिर भी नहीं सकते थे, तब भी अपनी दैनिकचर्या में पूर्णतः सतर्क रहे। एक भी दिन ऐसा न निकला होगा; जिस दिन उन्होंने देवदर्शन न किये हों, . पूजन न किया हो। बिना दर्शन-पूजन के वे कुल्ला भी नहीं करते थे। ___ जीवन के अन्त समय तक उनका स्वाध्याय भी नियमित रहा। स्मारक भवन में होनेवाले प्रात:कालीन एवं सायंकालीन प्रवचनों के वे नियमित श्रोता थे। इसके अतिरिक्त टेपों द्वारा गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के प्रवचन भी वे प्रतिदिन नियमितरूप से सुनते थे। ___ असह्य पीड़ा में भी उन्हें कभी व्यग्र होते नहीं देखा। जीवन के अन्तिम वर्षों में बीमारी के वज्रप्रहार से वे एकदम पंगु से हो गये थे, पर उन्होंने इस अभाग्य को भी सदभाग्य के रूप में देखा। वे कहा करते थे कि यदि मैं इस स्थिति में नहीं पहुँचता तो मुझे आत्मसाधना के लिए इतना समय भी न मिलता, सामाजिक कार्यों और धार्मिक-अनुष्ठानों में ही उलझा रहता। पर इस जगत ने इस पंगु अवस्था में भी उन्हें नहीं छोड़ा; क्योंकि वे गुजरात में होनेवाले सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में तो अनिवार्य से हो गये थे। वे ऐसी ही अवस्था में भी अहमदाबाद पंचकल्याणक में गए, रणासन शिविर में
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy