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आत्मधर्म के आद्य सम्पादक
51 की उपस्थिति में ही जो कक्षा वे लेते थे, उसे लेने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हो चुका है।
गुरुदेवश्री की अनुपस्थिति में आज भी उनकी छत्र-छाया मुझे उसीप्रकार प्राप्त है, जिसप्रकार उनकी पावन उपस्थिति में प्राप्त थी। उनकी छत्र-छाया हमें आजीवन प्राप्त रहे और पू. बापूजी अपरिमित काल तक आत्महित के साथ-साथ हमारा मंगल मार्गदर्शन करते रहें - इसी मंगल भावना के साथ विराम लेता हूँ।
है।
संवररूप धर्म की उत्पत्ति का मूल कारण भेदविज्ञान है। यही कारण है कि इस ग्रंथराज समयसार में आरम्भ से ही पर और विकारों से भेदविज्ञान कराते आये हैं। सारसमयसार, पृष्ठ-१३ ___ सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा को क्रिया करते हुए एवं उसका फल भोगते हुए भी यदि कर्मबंध नहीं होता है और निर्जरा होती है तो उसका कारण उसके अंदर विद्यमान ज्ञान और वैराग्य का बल ही
सारसमयसार, पृष्ठ-१६ हिंसादि पापों में प्रवर्तित मिथ्यादृष्टि जीव को होनेवाले पापबंध का कारण रागादिभाव ही हैं, अन्य चेष्टायें या कर्मराज आदि नहीं।
सारसमयसार, पृष्ठ-१७ यद्यपि यह बात सत्य है कि कर्मजाल, योग, हिंसा और भोगक्रिया के कारण बंध नहीं होता, तथापि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा के अनर्गल प्रवृत्ति नहीं होती और न होनी ही चाहिए; क्योंकि पुरुषार्थहीनता और भोगों में लीनता मिथ्यात्व की भूमिका में ही होती
सारसमयसार, पृष्ठ-१९
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है।