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आत्मधर्म के आद्य सम्पादक
जब वे लोग चले गये तो उन्होंने फाइल मंगाई, उसका गहरा अध्ययन किया और उचित सलाह भी दी। यह भी कहा जाता है कि उनकी सलाह के अनुसार केस लड़ने पर जीत भी हुई। पर जब उनसे एकान्त में पूछा गया कि जब आपको सलाह देनी ही थी, तब आपने ऐसा व्यवहार ही क्यों किया? __तब वे समझाते हुए बोले - "यदि ऐसा व्यवहार नहीं करता तो फिर यहाँ भी केसों का तांता लग जाता। जिस झंझट को छोड़कर आया हूँ, फिर उसी में उलझ जाता। उन्हें तो सलाह देनी ही थी, आखिर अपना तीर्थराज है, उसे तो बचाना ही था; पर आगे का इन्तजाम भी तो करना था।"
उनकी सहृदयतापूर्ण कठोरता का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है?
वे सोनगढ़ के भीष्मपितामह हैं। छोटी-मोटी बातों से उदासीन, उनमें न उलझने वाले; पर पूज्य गुरुदेवश्री के बाद सोनगढ़ की मूलधारा के सबल संरक्षक के रूप में उनकी उपस्थिति सभी को छत्रछाया प्रदान करती है। __ वे सोनगढ़ के सजग प्रहरी हैं। उनकी दबंग पहरेदारी में सोनगढ़ आज तक सबप्रकार से सुरक्षित रहा है। कहा जाता है कि जब स्वामीजी ने सत्यधर्म
अपनाया, तब उनके पास काठियावाड़ के दो शेर आये थे। उनमें से प्रथम थे, हमारे बापूजी रामजीभाई माणेकचन्द दोशी; जिनके पौरुष की छत्रछाया में सोनगढ़ स्वर्णपुरी बनकर फला-फूला, चमका और तीर्थ बन गया। उसे तीर्थ बनानेवाला तो पूज्य गुरुदेवश्री का पुण्यप्रताप ही है, पर बापूजी के सबल संरक्षण का भी उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान है।
वैसे तो विकास के आरम्भ से ही सोनगढ़ को बापूजी की पहरेदारी का लाभ प्राप्त रहा है, तथापि मैंने भी इस सजग प्रहरी को विगत छब्बीस वर्षों से लगातार हाथ में छड़ी लिए हुए, सोनगढ़ में पहरा देते हुए अपनी आँखों से देखा है। भगवान आत्मा' की पुकार करनेवाले, 'भगवान आत्मा' के ही गीत गानेवाले, हर आनेवाले को 'भगवान आत्मा' कहकर पुकारनेवाले दिव्यात्मा पूज्य गुरुदेवश्री महाप्रयाण कर गये; तो मानो सोनगढ़ की आत्मा ही