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बिखरे मोती आध्यात्मिक धारा की ओर मोड़ा है। बनारसीदासजी के ठीक तीन सौ वर्ष बाद आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी को यह ग्रन्थाधिराज समयसार हाथ लगा और वे भी आन्दोलित हो उठे, उनमें भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। वि.सं. १६९२ में बनारसीदासजी ने सम्यक् मार्ग अपनाया था तो वि. सं. १९९१ में कानजी स्वामी ने मुँह-पत्ती त्यागकर दिगम्बर धर्म स्वीकार किया। दोनों ही श्रीमाल जाति में उत्पन्न हुए थे, दोनों ने ही अपने-अपने युग में समयसार को जन-जन की वस्तु बना दिया, दोनों का ही दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों द्वारा डटकर विरोध हुआ, पर दोनों के ही बढ़ते क्रान्तिकारी कदमों को कोई नहीं रोक सका।
आचार्य कुन्दकुन्द के जिन-अध्यात्म में कुछ ऐसी अद्भुत शक्ति विद्यमान है, जो शताब्दियों से अत्यन्त विभक्त दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायों को नजदीक लाने का कार्य करता रहा है, एक मंच पर लाने का कार्य करता रहा है। जब-जब भी इन दोनों सम्प्रदायों के लोगों ने कुन्दकुन्द के जिन-अध्यात्म को अपनाया, तब-तब वे एक-दूसरे के नजदीक आये हैं। यद्यपि दोनों ही सम्प्रदायों के पुरातनपंथियों ने उनका डटकर विरोध किया, पर अध्यात्म के आधार पर समागत नजदीकी को दूरी में बदलने में वे असमर्थ ही रहे । कविवर बनारसीदास एवं आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के साथ भी यही इतिहास दुहराया गया है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि विरोधियों द्वारा श्री कानजीस्वामी पर भी आज वे ही आरोप लगाये जा रहे हैं, जो तीन सौ वर्ष पूर्व बनारसीदास पर लगाये गये थे। ___ वस्तुत: बात तो यह है कि बनारसीदासजी या श्री कानजीस्वामी का विरोध समयसार का विरोध है, आचार्य कुन्दकुन्द का विरोध है, जिन-अध्यात्म का विरोध है, शुद्धाम्नाय का विरोध है । अधिक क्या कहें? यह सब निज भगवान
आत्मा का ही विरोध है, स्वयं का ही विरोध है, स्वयं को अनन्त संसारसागर में डुबा देने का महान अधम कार्य है। __ऐसा आत्मघाती महापाप शत्रु से भी न हो – इस पावन भावना के साथ दोनों ही दिवंगत महापुरुषों को श्रद्धांजलि समर्पित करते हुए विराम लेता हूँ।