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बिखरे मोती
इस ज्ञानबावनी में बनारसीदास के प्रभाव का अनेक प्रकार से निरूपण किया गया है। इसमें एक रूपक के माध्यम से कहा गया है कि मानों बनारसीदासजी के नेतृत्व में यह अध्यात्मशैली मोक्षमहल की ओर प्रयाण कर रही है। मूल छन्द इसप्रकार है
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"जिनवाणी दुग्ध माहिं विजया सुमति डार,
निज स्वाद कंदवृन्द चहल-पहल में । विवेक विचार उपचार ए कसूंभो कीन्हों,
मिथ्यासोफी मिटि गये ज्ञान की गहल में ॥ शीरनी शुकलध्यान अनहद नाद तान,
गान गुणमान करै सुजस सहल में । बानारसीदास मध्यनायक सभासमूह,
अध्यातमशैली चली मोक्ष के महल में ॥ ४५ ॥
विक्रम संवत् १६८६ में लिखी गई इस रचना से स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि बनारसीदास उस समय तक बहुत प्रसिद्धि पा चुके थे। दूर-दूर से लोग उनके सत्समागम का लाभ लेने आते थे, उनके समागम में थोड़ा-बहुत रहने पर उनके ही बनकर रह जाते थे। पीताम्बर कवि भी कहीं बाहर से उनके समागम का लाभ लेने ही आये थे और उनके ही होकर रह गये थे । ज्ञानबावनी के ४९ वें छन्द में वे लिखते हैं "शकवंधी सांचो शिरीमाल जिनदास सुन्यो, ताके बंस मूलदास विरध बढ़ाया है । ताके बंस क्षिति में प्रगट भयौ खङ्गसेन,
बानारसीदास ताके अवतार आयो है ॥ बीहोलिया गोत गर वतन उद्योत भयो,
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आगरे नगर माहिं भेंटे सुख पायो है । बानारसी बानारसी खलक बखान करै,
ताकौं वंश नाम ठाम गाम गुण गायो है ॥ ४९ ॥
उक्त छन्द में बनारसीदास के जन्म को 'अवतार' शब्द से अभिहित किया है और कहा है कि आगरे में उनसे भेंट कर मुझे बहुत आनन्द हुआ है । मैं अधिक क्या कहूँ, सारी ही दुनिया बनारसीदास का ही बखान करती है ।