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बिखरे मोती
रहे और उस एकता को हम भारतीय संस्कृति के नाम से दुनिया के सामने रख
सकें ।
प्रश्न- राम जन-जन के रोम-रोम में समाए हुए हैं। तो क्या वे राम किसी पत्थर की इमारत के मोहताज हैं ?
डॉ. साहब - आपका कहना सही है। जब हमारा एक मजदूर कुल्हाड़ी चलाता है, तो उसके मुँह से 'हे राम' शब्द निकलता है। राम कण-कण में व्याप्त हैं, हरेक के मन में व्याप्त हैं । फिर भी यदि यह प्रश्न खड़ा हो ही गया है तो हम उसे यह कहकर नहीं टाल सकते कि राम सबके हृदय में बसे हैं, इसलिए उनके मन्दिर की कोई जरूरत नहीं है। आखिर राम हृदयों में बसे हैं न, इसीलिए तो मन्दिर बनते हैं, हृदयों में नहीं होते तो, मन्दिर कौन बनाता ।
प्रश्न - भारिल्ल साहब ! राम की मर्यादा को कायम रखते हुए मन्दिर
बने यह तो सही है. लेकिन जो अल्पसंख्यक लोग हैं उनके मन में कोई
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भय न रहे, वे अपने को सुरक्षित समझें - इसके लिए रास्ता कैसे निकलेगा ?
डॉ. साहब - रास्ता न तो न्यायालय निकाल सकता है और न राजनैतिक लोग निकाल सकते हैं । न्यायालय तो कानून की सीमाओं में बँधा है, वह इस दृष्टि से देखेगा जमीन किसकी थी? किसके नाम है ? क्या बनना चाहिए? क्या करना चाहिए? वह जो निर्णय देगा, उससे सम्पूर्ण भारतीय जनमानस को संतोष हो जाएगा- इसकी कोई गारन्टी नहीं है । हो सकता है कि एक पक्ष प्रसन्न एवं दूसरा पक्ष एकदम आंदोलित हो जाए ।
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राजनैतिक लोग भी जो निर्णय देंगे वह उनके वोट बैंक के अनुसार होगा। एक मात्र सभी धर्मों के धर्मगुरु ही कोई रास्ता निकाल सकते हैं; क्योंकि उन्होंने अपना घर-बार छोड़कर धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ही जीवन समर्पित किया है। वे लोग अपने विशाल हृदय से सोचें और मिल-बैठकर ऐसा निर्णय निकालें