SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 14 बिखरे मोती "कही पचावन बरस लौं, बनारसि की बात । तीनि बिवाहीं भारजा, सुता दोइ सुत सात ॥६४२ ॥ नौ बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोइ । ज्यौं तरवर पतझार है, रहैं दूंठ-से होई ॥६४३ ॥ तत्त्वदृष्टि जो देखिए, सत्यारथ की भाँति । ज्यौं जाकौ परिगह घटै, त्यौं ताकौं उपसांति ॥६४४॥ संसारी जानै नहीं, सत्यारथ की बात । परिगह सौं मानै विभौ, परिगह बिन उतपात ॥६४५॥" उन्होंने अपने इस अप्रत्याशित दु:ख को अध्यात्म के आधार पर ही सहन किया था। इस दुस्सह वियोग को वे परिग्रह का घटना मानकर मन को समझा अवश्य रहे हैं, पर क्या इस चंचल मन का समझ जाना इतना आसान है? अपनी इस स्वभावगत कमजोरी को भी कवि छिपा नहीं सका और तत्काल अपने गुण-दोष-कथन में वह स्वीकार कर लेता है कि - "थोरे लाभ हरख बहु धरै। अलप हानि बहु चिन्ता करै । अकस्मात भय ब्यापै घनी। ऐसी दसा आइ करि बनी ॥" कवि ने इतने उतार-चढ़ाव देखे थे कि उन्हें आकस्मिक घटनाओं का भय सदा ही व्याप्त रहने लगा था। अनुकूलता में भी सदा यही आशंका बनी रहती थी कि कहीं कुछ अघटित न घट जावे। __वे अपने को मध्यम जाति का पुरुष मानते थे। उनके मध्यम जाति के पुरुष की परिभाषा इसप्रकार है - "जे भाखहिं पर-दोष-गुन, अरु गुन-दोष सुकीउ । कहहिं सहज ते जगत मैं, हम-से मध्यम जीउ ॥३" जो लोग अपने व पराये दोष व गुण सहज भाव से प्रगट कर देते हैं, वे हमारे जैसे मध्यम जाति के जीव हैं।" १. अर्द्धकथानक, छन्द ६४२ से ६४५ २. अर्द्धकथानक, छन्द ६५४ व ६५६ ३. अर्द्धकथानक, छन्द ६६८
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy