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जैनदर्शन का तात्त्विक पक्ष : वस्तुस्वातन्त्र्य
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माने बैठा है कि'' मैं अपने कुटुम्ब, परिवार, देश व समाज को पालता हूँ, उन्हें सुखी करता हूँ और शत्रु आदि को मारता हूँ व दुःखी करता हूँ अथवा मैं भी दूसरे के द्वारा सुखी - दुःखी किया जाता हूँ या मारा- बचाया जाता हूँ ।" • इस मिथ्या मान्यता से बचाने की थी । अतः उन्होंने कर्तावाद संबंधी उक्त मान्यता का कठोरता से निषेध किया है। उन्हीं के शब्दों में :
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जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ २४७ ॥ जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ २५० ॥ जो अपणा दु मदि दुक्खिद सुहिदे करोमि सत्तेति । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ २५३ ॥ दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि । जो एसा मूढमदी णिरत्थया सा ह दे मिच्छा ॥ २६६ ॥ जो यह मानता है कि मैं परजीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं; वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है ।
जो जीव यह मानता है कि मैं परजीवों को जिलाता (रक्षा करता हूँ और परजीव मुझे जिलाते (रक्षा करते) हैं; वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है।
जो यह मानता है कि अपने द्वारा मैं (पर) जीवों को दु:खी-सुखी करता वह मूढ (मोही) है, अज्ञानी है, और इससे विपरीत माननेवाला ज्ञानी है।
मैं जीवों को दु:खी-सुखी करता हूँ, बाँधता हूँ तथा छुड़ाता हूँ ऐसी जो यह तेरी मूढमति (मोहितबुद्धि) है; वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या है ।
उनका अकर्तृत्ववाद ‘मात्र ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है' के निषेधात्मक मार्ग तक सीमित है। वह भी इसलिए कि वे जैन हैं और जैनदर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता है, अतः वे भी नहीं मानते। ईश्वर को कर्त्ता नहीं मानने पर भी स्वयं कर्तृत्व उनकी समझ में नहीं आता ।
१. आचार्य कुन्दकुन्द समयसार, बंध अधिकार