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बिखरे मोती विभिन्न द्रव्यों के बीच सर्वप्रकार के सम्बन्ध का निषेध ही वस्तुतः पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा है। पर के साथ किसी भी प्रकार के संबंध की स्वीकृति परतन्त्रता को ही बताती है।
अन्य सम्बन्धों की अपेक्षा कर्ता-कर्म सम्बन्ध सर्वाधिक परतन्त्रता का सूचक है। यही कारण है कि जैनदर्शन में कर्त्तावाद का स्पष्ट निषेध किया है। कर्त्तावाद के निषेध का तात्पर्य मात्र इतना नहीं है कि कोई शक्तिमान ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है; अपितु यह भी है, कोई भी द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है। किसी एक महान शक्ति को समस्त जगत का कर्ता-हर्ता मानना एक कर्त्तावाद है तो परस्पर एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता मानना अनेक कर्त्तावाद।
जब-जब कर्त्तावाद या अकर्त्तावाद की चर्चा चलती है तब-तब प्रायः यही समझा जाता है कि जो ईश्वर को जगत का कर्ता माने, वह कर्त्तावादी है और जो ईश्वर को जगत का कर्ता न माने, वह अकर्तावादी। चूंकि जैनदर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता; अतः वह अकर्त्तावादी दर्शन है।
जैनदर्शन का अकर्तावाद मात्र ईश्वरवाद के निषेध तक ही सीमित नहीं; किन्तु समस्त परकर्तृत्व के निषेध एवं स्वकर्तृत्व के समर्थनरूप है । अकर्त्तावाद का अर्थ ईश्वरकर्तृत्व का निषेध तो है, परमात्र कर्तृत्व के निषेध तक भी सीमित नहीं, स्वयंकर्तृत्व पर आधारित है। अकर्त्तावाद यानी स्वयंकर्त्तावाद। __ प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति का स्वयं कर्ता है। उसके परिणमन में पर का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं है । स्वयंकर्तृत्व होने पर भी उसका भार जैनदर्शन को स्वीकार नहीं; क्योंकि वह सब सहज स्वभावगत परिणमन है । यही कारण है कि सर्वश्रेष्ठ दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार में ईश्वरवाद के निषेध की तो चर्चा तक ही नहीं की और सम्पूर्ण बल पर कर्तृत्व के निषेध एवं ज्ञानी को विकार के भी कर्तृत्व का अभाव सिद्ध करने पर दिया। जो समस्त कर्तृत्व के भार से मुक्त हो, उसे ही ज्ञानी कहा है।
कुन्दकुन्द की समस्या अपने शिष्यों को ईश्वरवाद से उभारने की नहीं, वरन् मान्यता में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं एक छोटा-मोटा ईश्वर बना हुआ है और