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बिखरे मोती इसप्रकार हम देखते हैं कि न तो स्वामीजी मुनिविरोधी ही थे और न उन्होंने कोई नया पंथ ही चलाया था; पर सच बात तो यह है कि जब उन्होंने दिगम्बर धर्म स्वीकार किया तो उनके परिवर्तन के मूल में आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार के साथ-साथ पण्डित टोडरमलजी के मोक्षमार्ग प्रकाशक का भी महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है।
जो भी हो, समाज में आज भी अनेक पंथ हैं और वे अपनी-अपनी मान्यताएँ भी अलग-अलग रखते हैं, पर कोई किसी को दिगम्बर मानने से इन्कार नहीं करता। कोई क्षेत्रपाल-पद्मावती की पूजन को गृहीतमिथ्यात्व मानता है तो कोई उनकी भगवान जैसी पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं, कराते हैं ; कोई अपने मंदिरों में मूर्तियों को प्रतिष्ठित करते हैं और कोई अपने चैत्यालयों में मात्र जिनवाणी ही रखते हैं । एक-दूसरे की मान्यताओं से असहमत रहते हुए भी एक-दूसरे को दिगम्बर तो स्वीकार करते ही हैं । तब फिर थोड़ी बहुत प्रवृत्तियाँ भिन्न होने मात्र से किसी को गैर-दिगम्बर कैसे कहा जा सकता है? • हम भी सूर्यकीर्ति प्रकरण से पूरी तरह असहमत हैं और हमने अपनी
असहमति को समय-समय पर पूरी शक्ति से व्यक्त भी किया है, पर इस कारण उन्हें दिगम्बर ही न मानें – यह तो सर्वथा अन्याय है ।जो भी व्यक्ति कुन्दकुन्द का भक्त है, उनकी वाणी में श्रद्धा रखता है और वह पक्का दिगम्बर जैन है। न तो इस सत्य को ही झुठलाया जा सकता है और न यह भी माना जा सकता है कि कानजीस्वामी के अनुयायियों को कुन्दकुन्दवाणी में श्रद्धा नहीं है। सच तो यह है कि कुन्दुकन्दवाणी में जैसी अगाध श्रद्धा उनमें है, वैसी अपने को मूल दिगम्बर कहनेवालों में भी कम ही देखने को मिलती है। __ अब रही शिथिलाचार के विरोध की बात, तो दिगम्बर जैन समाज में ऐसा तो एक भी व्यक्ति नहीं होगा, जो शिथिलाचार का विरोधी न हो और सभी मुनिराजों में एक-सी श्रद्धा रखता हो। कोई किसी को मानता है तो कोई किसी को, एक-दूसरे की आलोचना भी कम नहीं करते, पर इसका यह तात्पर्य तो नहीं कि सभी मुनिविरोधी हैं।