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________________ 180 बिखरे मोती हम अन्तिम बिन्दु तक एकता के लिए प्रयत्न करेंगे। यदि हम अपने काम में सफल हो गये तो आपकी समाज की एकता को देखकर बहुत गौरव के साथ यहाँ से जायेंगे। इसी भावना के साथ मैं अभी की बात समाप्त करता हूँ और आगे का कार्यक्रम चलाने का आप सबसे अनुरोध करता हूँ । दूसरा दिन कल हमारे चित्त में जो बहुत खेद था और मैंने आपसे अपील की थी कि थोड़ा-सा समय हम शान्ति से बिताये, व्रत-उपवास करें और चित्त में उद्वेग न आने दें। फिर हम सोचेंगे कि हमें इसके बारे में क्या करना है? इन २४ घंटों में हमने बहुत विचार-विमर्श किया। बहुत से लोगों से सलाह-मशविरा भी किया और हमारा तो यह विश्वास है कि जिस मन्दिर से यह जिनवाणी यहाँ आई है; उसी मंदिर से ही तो अपने पास जिनेन्द्र भगवान भी आये हैं । जिसप्रकार ये भगवान जावेंगे। उसीप्रकार एक न एक दिन, यह जिनवाणी भी उस मंदिर में अवश्य वापिस जायेगी, ऐसा हमारा विश्वास है । हम कोई जबरदस्ती या किसी और तरीके से इस काम को नहीं करना चाहते हैं। हम तो हमारे जो भाई हैं, उनका हृदय परिवर्तन चाहते हैं । वे हमें प्रेम से बुलायें और हम प्रेम से जायें, यही हमारा रास्ता है । उसमें भले ही थोड़ी देर लग सकती है, लेकिन अंधेर नहीं हो सकता। हृदयपरिवर्तन का जो काम है, वह समय - सापेक्ष होता है। हमें अपने हृदय की पवित्रता का परिचय देना पड़ता है; तब हम सामने वाले से हृदय परिवर्तन की अपेक्षा रख सकते हैं । इसलिए कुछ समय के लिए हम इस जिनवाणी को कहीं एक जगह विराजमान करेंगे। हमारे हृदय में जो पीड़ा है और जो क्षोभ है, उससे ऐसा लगता है कि हमारे सामने यह काम हुआ और हम अपनी कोई भी श्रद्धा इसके लिए समर्पित न कर पाये। ऐसा लगता है कि हमने जिनवाणी का अपमान सह करके कोई अर्घ्य नहीं चढ़ाया है। इसलिए हम यहाँ पर परसों बहुत अच्छी तरह से जिनवाणी का पूजा-पाठ करेंगे और इसे जुलूस के साथ ससम्मान जहाँ हमें रखना है, वहाँ ले जायेंगे ।
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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