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बिखरे मोती
इसीप्रकार हमारे जिन साथियों ने सबकी भावनाओं की अवहेलना कर जिनागम के आधार बिना जो कार्य किया है, उसमें भी उनकी अतिशय भक्ति ही मूल प्रेरक रही है। जिन पूज्य स्वामीजी ने उन्हें मिथ्यात्व के महा-अंधकार से निकालकर सद्धर्म का मार्ग सुझाया, उनके प्रति उनकी अतिशय श्रद्धा होना स्वाभाविक ही है, पर उन्हें अपनी श्रद्धा और भक्ति व्यक्त करने का आगमसंमत और जिन परम्परा से अविरुद्ध निरापद रास्ता चुनना चाहिए था ।
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हमारा भी यह दुर्भाग्य रहा कि अनन्त प्रयत्नों के बाद भी हम उन्हें इससे विरत न कर सके । इतना सब कुछ होकर भी वे आज भी उसी मार्ग पर बढ़े जा रहे हैं और उससे उत्तेजित होकर समाज भी असंतुलित - सा होता जा रहा है । ऐसी स्थिति में हमारे पास इस शान्तिप्रिय आन्दोलन के अतिरिक्त कोई रास्ता शेष नहीं रह गया है । इस महापाप से स्वयं बचने और समाज को बचाने के लिए प्रार्थना और उपवास करने के अतिरिक्त हम कर भी क्या सकते हैं ?
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भाई ! जिस समाज में हम रहते हैं, उस समाज में होनेवाले हर गलत कार्य के हम भी तो कुछ अंशों में जिम्मेदार हैं; भले ही वह कार्य हमने न किया हो, हमने न कराया हो, हमने उसकी अनुमोदना भी न की हो; पर हम उसे रोक नहीं सके- यह पीड़ा तो हमें भी है ही। समझ लीजिए हमारी यह प्रार्थनाएं उस पीड़ा का ही परिणाम है, हमारे उपवास उक्त उत्तरदायित्व नहीं निभा पाने के प्रायश्चित हैं ।
दुनिया चाहे बदले, चाहे न बदले; पर प्रार्थना में सम्मिलित होनेवालों को, उपवास करनेवालों को आत्मशान्ति तो प्राप्त होगी ही ।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि यदि समाज ने आपकी इस आवाज को नहीं सुना, इस पर ध्यान नहीं दिया, आपकी प्रार्थना सभाओं में लोग सम्मिलित न हुए तो आप क्या करेंगे ?
ऐसा भी हो सकता है - यह हमने सोचा ही नहीं है। हम समाज से अपने लिए कुछ नहीं माँग रहे हैं, लड़ने-मरने के लिए भी नहीं कह रहे हैं, मात्र प्रार्थना सभाएँ एवं उपवास करने के लिए ही तो कह रहे हैं। जिनवाणी माँ के अपमानित होने पर समाज इतना भी करने को तैयार न होगा यह हम सोच भी नहीं
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