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________________ 154 बिखरे मोती मन्दिरों में भी ऐड़ी-चोटी का पसीना लगाने के बाद भी वह मूर्ति स्थापित नहीं हो सकी है। जो सूर्यकीर्ति-प्रकरण उत्तेजना का मूल कारण है, उस सूर्यकीर्तिप्रतिष्ठा से जो लोग सम्मत नहीं है, उसके विरुद्ध अपने तरीके से संघर्ष भी कर रहे हैं, उनके विरुद्ध कुछ भी कहने या करने का क्या औचित्य है - यह हमारी समझ से परे है। बिना सोचे-समझे कुछ भी लिखते-बोलते रहने से दिगम्बर समाज की . कितनी हानि है ? – क्या इसकी कल्पना भी उन्हें नहीं है ? इस नाजुक स्थिति का लाभ उठाकर कुछ लोग पावन जिनवाणी को मन्दिरों से हटाने एवं जलप्रवाह करने की बातें करने लगे हैं, इसके लिए समाज को उकसाने भी लगे हैं। पहले भी इसप्रकार के प्रयास किए गए थे, पर वे सफल नहीं हुए, आगे भी इसप्रकार के कार्यों का यही हाल होनेवाला है ।क्या समयसार और मोक्षमार्गप्रकाशक को मात्र इसी आधार पर बहिष्कृत किया जा सकता है कि वे सोनगढ़ या जयपुर से प्रकाशित हुए है ? क्या इसमें आचार्य कुन्दकुन्द और पंडित टोडरमलजी का अपमान नहीं होगा ? कल तक जो जिनवाणी थी, मन्दिरों में पढ़ी ही नहीं, पूजी जाती थी, क्या वह कुछ अविवेकियों के अविवेकपूर्ण कार्यों से आज तिरस्कार योग्य हो गई ? शास्त्रों का तिरस्कार कर नरकनिगोद जाने का महापाप किसी के बहकाने से धर्मभीरू समाज कभी करने वाली नहीं है। "धर्म के दशलक्षण" एवं "जिनवरस्य नयचक्रम्"जैसी सर्वमान्य कृतियाँ, जिनकी प्रशंसा मुनिराजों ने भी की है, विरोधी विद्वानों ने भी दिल खोलकर की है, जो आज जनजन की वस्तु बन गई हैं, उन्हें निकाल पाना क्या आज किसी के वश की बात है ? मान लो, लोग इसमें सफल भी हो गए तो इससे उन्हें क्या दण्ड मिलनेवाला है, जिन्होंने यह अनर्थ किया है ? हम आपस में ही लड़ मरेंगे, जिसका भरपूर लाभ उन्हें ही प्राप्त होगा। वे तो यही चाहते हैं कि हम आपस में लड़ मरें और वे दूर बैठे-बैठे तमाशा देखते रहें। ___ कुछ असामाजिक तत्त्व मन्दिरों में सोनगढ़ साहित्य न रखने के बोर्ड अधिकारियों की अनुमति एवं जानकारी बिना लगा रहे हैं। आपको जानकर
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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