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एक ही रास्ता
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दूसरी बात यह भी तो है कि जब हम इसके लिए संघर्ष कर रहे थे, तब लोग कहते थे कि हम सत्ता एवं पैसे के लिए लड़ रहे हैं। कुछ लोग तो आज भी यह रट लगा रहे हैं, जब कि हम वहाँ की समस्त गतिविधियों से एकदम ही अलग हो गए हैं।
मेरे हाथ में अभी एक लम्बा-चौड़ा प्रिंटेड पैम्पलेट है, जिसमें लिखा है कि " श्री भारिल्लजी के लिए यह लड़ाई पद, कुर्सी व पैसे के लिए चम्पाबहिन से है", पर मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि न तो बहिन श्री को ही पद, कुर्सी और पैसा चाहिए और न हमें, यह सब तो हमारे पक्ष के त्यागपत्र दे देने से ही स्पष्ट है। हाँ, यह बात अवश्य है कि कुछ मनमानी करने वाले सत्तालोलुपी लोग स्वामीजी के प्रताप से बने नये दिगम्बरों में बहिन श्री की अपरिमित प्रतिष्ठा का अनुचित लाभ अवश्य उठा रहे हैं।
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संघर्ष का आरंभ “ धन्यावतार " से आरंभ हुआ और सूर्यकीर्ति-प्रकरण में चरम बिन्दु पर पहुँच गया। दोनों ही प्रकरणों में हमने पूरी शक्ति लगाकर रोकने का प्रयत्न किया और न रुकने पर समाज के सामने समय रहते सब-कुछ स्पष्ट कर दिया। इन दोनों के बीच की भी छोटी-बड़ी बहुत सी बातें हैं, जिनकी चर्चा न तो आवश्यक ही है और न हमें अभीष्ट ही है ।
स्वामीजी का जीवन भर विरोध करने वाले एक विद्वान हमसे बोले - "डॉ. साहब, कृपा कर धन्यावतार जैसी दो-चार पुस्तिकाएँ और निकलवा दीजिए तो हमारा काम सरल हो जाय।"
हमने गंभीरता से उनसे कहा
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'आप, क्या कार्य सरल करना चाहते हैं ? पूज्य स्वामीजी तो गए, उनका तो भला बुरा अब कुछ होना नहीं है। उनके प्रताप से जो हजारों भाई दिगम्बर जैन बने हैं, क्या उन्हें आप अपने से अलग होने को बाध्य कर देना चाहते हैं ?
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हमारे मन्दिरों में माली काम करते हैं । सात-सात पीढ़ी से वे हमारे मन्दिरों की सेवा करते आ रहे हैं, पर आजतक हम एक माली को भी जैन नहीं बना सके हैं और स्वामीजी के प्रताप से हजारों पक्के दिगम्बर जैन बन गए हैं।