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बिखरे मोती
बहिष्कृत न हो जावें । उन्हें इस पर भी विचार कर लेना चाहिए। वे लोग पहिले अपना आचरण तो देखें, अपने बच्चों का आचरण तो देखें । पहिले उनका ही बहिष्कार कर लें तब दूसरों का बहिष्कार करने की सोचें ।
मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने आज तक किसी का संस्कार भी किया है, किसी एकाध को दिगम्बर जैन भी बनाया या दिगम्बर जैनों को गैर दिगम्बर जैन बनाने का काम ही अपने माथे रखा है। जरा इस बात पर भी गौर कर लें कि कहीं वे धर्म की रक्षा के नाम पर उसका विनाश करने पर तो नहीं तुले हैं।
उन्होंने कभी ये भी सोचा है कि उन्हें ये अधिकार दिया किसने है ? ये स्वयंभू नेता दिगम्बरों के भाग्यविधाता कैसे बन गये हैं ? इनका जीवन इसी में निकला है। ये वही लोग हैं जो कभी वर्णीजी का कमण्डलु छीनने की बात करते थे। ब्र. शीतलप्रसादजी का बहिष्कार करने पर तुले थे। पर क्या कर पाये वर्णीजी का ? क्या कर पाये ब्र. शीतलप्रसादजी का ? समाज में नये-नये झगड़े खड़े करने के अतिरिक्त और उन्होंने किया ही क्या है ?
जब वे उस समय ही कुछ नहीं कर पाये तब आज तो समाज काफी जागृत हो गया है। आज के जागृत समाज को दो में से एक को चुनना है निर्माण या विध्वंस | हमें पूरा-पूरा विश्वास है कि आज का जागृत समाज निर्माण को चुनेगा, विध्वंस को नहीं ।
यदि आपको कोई तकलीफ है तो उनसे सस्ता साहित्य प्रकाशित कीजिए, उसे कम से कम मूल्य में घर-घर पहुँचाइये, जलाने और डुबाने का नकारात्मक मार्ग छोड़िये । अपने भाषणों में अखबारों में गाली गलोच एवं विघटनकारी बातों को छोड़कर तत्त्व की बातें समझाइये, संगठन को बल दीजिए। दूसरे की खींची लकीर छोटी करने के लिए उसे मिटाइये नहीं, बल्कि उसके बगल में बड़ी लकीरें खींचिये ।
समाज की शांति के खातिर, जिनधर्म की प्रभावना के खातिर इनसे सानुरोध आग्रह है कि एकबार अपने कृत्यों पर विचार करें, समाज के सर्वमान्य नेताओं की मार्मिक अपील पर हृदय से अमल करें। अनावश्यक गर्म जोशी में ऐसा कोई प्रयास न करें कि जो समाज को विघटन की ओर ले जावे। विध्वंस से विरत हो अपनी शक्ति और श्रम को निर्माण में लगावें ।