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अन्यत्वभावना : एक अनुशीलन जिस देह में आतम रहे वह देह भी जब अन्य है। तब क्या करें उनकी कथा जो क्षेत्र से भी भिन्न हैं। जो जानते इस सत्य को वे ही विवेकी धन्य हैं।
ध्रुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है ॥ संयोगों की अनित्यता, अशरणता एवं असारता; अनित्य, अशरण एवं संसारभावना में बताई जा चुकी है। एकत्वभावना में यह स्पष्ट किया गया है कि कोई भी संयोग सुख-दुःख के साथी नहीं होते, सम्पूर्ण सुख-दुःख जीव अकेले ही भोगता है। अब अन्यत्वभावना में यह समझाते हैं कि परमार्थ से विचार करें तो आत्मा शरीरादि सर्व संयोगों से अत्यन्त भिन्न ही है। अन्यत्वभावना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं - "अण्णं इमं सरीरादिगं पिजं होज्ज बाहिरं दव्वं ।
णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥ आत्मा ज्ञान-दर्शनस्वरूप है और शरीरादिक सभी बाह्य पदार्थ इससे भिन्न हैं - इसप्रकार चिन्तन करना अन्यत्वभावना है।"
इसीप्रकार का भाव कार्तिकेयानुप्रेक्षा में व्यक्त किया गया है, जो कि इसप्रकार है -
"जो जाणिऊण देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिण्णं । अप्पाणं पि य सेवदि कजकरं तस्स अण्णत्तं ॥
१. बारस अणुवेक्खा, गाथा २३ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ८२