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अशरणभावना : एक अनुशीलन
में व्याघ्र द्वारा पकड़े गये हिरणशावक की भाँति अथवा महासागर में जहाज से च्युत पक्षी की भाँति शरण नहीं होते हैं-ऐसा जानना चाहिए।
यह जानकर भोगों की वांछारूप निदानबन्धादि का अवलम्बन न लेकर स्वसंवेदन से उत्पन्न सुखामृत के धारक शुद्धात्मा का अवलम्बन लेना ही श्रेयस्कर है, शरण है। जो इसप्रकार की शुद्धात्मा का शरण ग्रहण करता है, वह शुद्धात्मा की शरण में उसीप्रकार सुरक्षित हो जाता है, जिसप्रकार वज्र के पिंजरे में मृगादि व्याघ्रादि से सुरक्षित रहते हैं।
इसप्रकार अशरण भावना का व्याख्यान समाप्त हुआ।"
सभी आत्मार्थीजन निजस्वभाव की शरण ग्रहण कर अनन्तसुखी हों - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।
आज नहीं तो कल आत्मानुभवी सत्पुरुषों के सम्पर्क में आकर शुद्धात्मतत्त्व के प्रतिपादक शास्त्रों को पढ़कर आत्मा की चर्चा-वार्ता करना अलग बात है और शुद्धात्मा का अनुभव करना अलग।
अधिकांश जगत तो गतानुगतिक ही होता है। जो जिसप्रकार के वातावरण में रहता है, उसीप्रकार की बातें करने लगता है, व्यवहार करने लगता है; परन्तु वस्तु की गहराई तक बहुत कम लोग पहुँच पाते हैं। अधिकांश तो हाँ में हाँ मिलानेवाले और ऊपर से वाह-वाह करनेवाले ही होते हैं।
जो लोग तत्त्व की गहराई तक पहुँच जाते हैं, उन्हें तो परमतत्त्व की प्राप्ति हो ही जाती है; किन्तु जो अपनी स्थूल बुद्धि के कारण परमतत्त्व को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, उन्हें भी इतना लाभ तो होता ही है कि वे जगत के वासनामय कषायमय विषाक्त वातावरण से तो बहुत-कुछ बचे रहते हैं, उनका जीवन सहज सात्विक बना रहता है, परिणामों में भी निर्मलता बनी रहती है।
तथापि यदि अच्छी होनहार हो तो काल पाकर उनका भी पुरुषार्थ जागृत हो जाता है और आज नहीं तो कल वे भी निजतत्त्व तक पहुँच ही जाते हैं।
- सत्य की खोज, पृष्ठ २०५
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