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बारहभावना : एक अनुशीलन
इस समस्या का निदान ही यह अशरणभावना है; जिसमें इस तथ्य का चिन्तन किया जाता है, बार-बार विचार किया जाता है कि मरण जिनका स्वभाव है, उन्हें कौन बचावे? अशरण जिनका स्वभाव है, उन्हें कौन शरण दे ?
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उनका विघटन तो अनिवार्य है - इस सत्य की स्वीकृति में ही शान्ति है, आनन्द है । यदि शान्ति और आनन्द की चाह है तो आनन्द के धाम और शान्ति के सागर आत्मस्वभाव में समा जाओ, वही परमशरण है। आत्मस्वभाव की आराधनारूप धर्म भी शरण है, उसके प्रतिपादक देव - गुरु - शास्त्र भी शरण हैं ।
इन सबकी शरण में जाने से पर्यायों और संयोगों का विघटन तो न मिट सकेगा, पर तज्जन्य आकुलता और अशान्ति अवश्य मिट जावेगी ।
अशरणभावना का सर्वांग स्वरूप स्पष्ट करनेवाली वृहद्रव्यसंग्रह की निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं -
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'अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते - निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद्बहिरंगसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनश्च शरणं, तस्माद्वहिर्भूता ये देवेन्द्रचक्रवर्त्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना: गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञाप्रसादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव महासमुद्रे पोतच्युत पक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम् । तद्विज्ञाय भोगकांक्षारूपनिदानबन्धादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसालम्बने स्वशुद्धात्मन्येवालम्बनं कृत्वा भावनां करोति । यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणागतवज्रपञ्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति । इत्यशरणानुप्रेक्षा
व्याख्याता ।"
अब अशरणभावना कहते हैं निश्चयरत्नत्रयपरिणत निजशुद्धात्मद्रव्य और उसके बहिरंग सहकारी कारणभूत पंचपरमेष्ठी की आराधना शरण है । इनके अतिरिक्त इन्द्र, चक्रवर्ती, कोटिभट सुभट पुत्रादि चेतन पदार्थ; पर्वत, किला, गुफा, मणि, मंत्र, आज्ञा, महल, औषधि आदि अचेतन पदार्थ तथा दोनों के सम्मिलितरूप मिश्र पदार्थ - ये सब मरण आदि के समय में महा-अटवी १. वृहद्रव्यसंग्रह, पृष्ठ १२०, गाथा ३५ की टीका
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