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अनित्यभावना : एक अनुशीलन
वैसा बहुत कम देखने में आता है; अपितु चिन्तित चित्त एवं विचलित मुखमुद्रा यही बताते हैं कि संयोगों के अनिवार्य वियोग एवं पर्यायों के सुनिश्चित प्रलय के चिन्तन से हम और अधिक आकुल-व्याकुल हो उठे हैं।
जब अनित्यता आत्मवस्तु का पर्यायगत स्वभाव है तो वह दु:खकर कैसे हो सकती है । तत्सम्बन्धी विचार-चिन्तन भी आकुलता का उत्पादक नहीं हो सकता। यदि स्वभाव और उसका चिन्तन-विचार भी आकुलता उत्पन्न करेंगे तो फिर सुख और शान्ति का कोई उपाय ही शेष न रहेगा; क्योंकि सुख और शान्ति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय तो वस्तुस्वभाव का सम्यक् ज्ञान-श्रद्धान ही है। _वस्तुतः बात यह है कि पर्यायगत स्वभाव के चिन्तन की दिशा और प्रक्रिया सम्यक् न होने से ही यह सब गड़बड़ी होती है; अत: इस दिशा में विस्तृत दिशाबोध की अत्यन्त आवश्यकता है। __ पर्यायों की परिवर्तनशीलता वस्तु का पर्यायगत स्वभाव होने से आत्मार्थी के लिए हितकर ही है; क्योंकि यदि पर्यायें परिवर्तनशील नहीं होती तो फिर संसारपर्याय का अभाव होकर मोक्षपर्याय प्रकट होने के लिए अवकाश भी नहीं रहता। अनन्तसुखरूप मोक्ष-अवस्था सर्वसंयोगों के अभावरूप ही होती है। यदि संयोग अस्थाई न होकर स्थाई होते तो फिर मोक्ष कैसे होता? अत: संयोगों की विनाशीकता भी आत्मा के हित में ही है।
परिवर्तन का स्वरूप भी तो हमारे पक्ष में ही है। अनन्तदुःखरूपसंसार का अभाव होकर अनन्तसुखस्वरूप मोक्ष तो प्रकट होता है; पर मोक्ष का अभाव होकर फिर संसार-अवस्था प्रकट नहीं होती। अनन्तदुःख विनाशीक है और अनन्तसुख अविनाशी हैं। - इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी?
पर्यायों और संयोगों को स्थिर रखने का विकल्प निरर्थक तो है ही, अविचारितरमणीय भी है। यदि लौकिकदृष्टि से विचार करें, तब भी मृत्यु एक शास्वत सत्य है, जबकि अमरता एक काल्पनिक उड़ान के अतिरिक्त कुछ नहीं