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बारहभावना : एक अनुशीलन
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इस दृष्टि से अनित्यभावना सम्बन्धी निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य हैं -
द्रव्यरूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कौन ? द्रव्यदृष्टि आपा लखो, परजय नय करि गौन ॥ द्रव्यदृष्टि से वस्तु थिर, पर्यय अथिर निहार ।
तासे योग-वियोग में, हर्ष-विषाद निवार ॥ उक्त छन्दों में वस्तु के द्रव्यांश और पर्यायांश - दोनों की ही चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि द्रव्यदृष्टि से सभी वस्तुएँ स्थिर हैं और पर्यायदृष्टि से कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। ___ यद्यपि दोनों ही छन्दों की वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करनेवाली प्रथम पंक्तियों में एक ही बात कही गई है; तथापि प्रेरणा देनेवाली द्वितीय पंक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रेरणा दी गई है। प्रथम छन्द में क्षणस्थाई पर्याय की अनित्यता को गौण करके नित्य स्थाई निज शुद्धात्मद्रव्य पर दृष्टि केन्द्रित करने की प्रेरणा दी गई है और दूसरे छन्द में पर्यायों के संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद नहीं करने की बात कही गई है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि अनित्यभावना की चिन्तनप्रक्रिया का मूल प्रयोजन इष्ट-अनिष्ट पर्यायों के संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद न करके समताभाव धारण करने के लिए दृष्टि को पर और पर्यायों पर से हटाकर द्रव्यस्वभाव पर केन्द्रित करना है; क्योंकि समताभाव की प्राप्ति का एकमात्र उपाय वृत्ति का स्वभावसन्मुख होना ही है। ___ अनित्यभावना सम्बन्धी चिन्तन करते हुए भी यदि समताभाव जागृत नहीं होता है तो समझना चाहिए कि हमारी तत्ससम्बन्धी चिन्तनप्रक्रिया सम्यक् नहीं है, कहीं कोई गड़बड़ी अवश्य है । अनित्यादि भावनाओं का चिन्तन करते समय जैसा साम्यभाव हमारी मुखमुद्रा एवं हाव-भावों में परिलक्षित होना चाहिए,
१. पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा कृत बारह भावना २. पण्डित दीपचन्दजी कृत बारह भावना