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आस्रवभावना : एक अनुशीलन
ही रहता है, कहीं भी स्थिरता प्राप्त नहीं कर पाता है। अतः संपूर्ण शुभाशुभ आस्रवों को पूर्णत: त्याग दीजिए और चैतन्यस्वरूप अविनाशी निज आत्मा को भज लीजिए अर्थात् चैतन्यस्वरूप अविनाशी निज आत्मा का ही ध्यान कीजिए - इसी में सार है।"
आस्रवभावना सम्बन्धी उक्त कथन यद्यपि अति संक्षेप में हैं, एक-एक छन्द में ही हैं; तथापि उनमें आस्रवभावों की हेयता और आत्मस्वभाव की उपादेयता का निर्देश अवश्य है। __ आत्मस्वभाव के आश्रयपूर्वक शुभाशुभभावरूप आस्रवभावों से मुक्त होना ही आस्रवानुप्रेक्षा के चिन्तन का वास्तविक फल है। स्वामी कार्तिकेय कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखते हैं - "एदे मोहयभावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो, आसव अणुपेहणं तस्स ॥१४॥ एवं जाणंतो वि हु, परिचयणीये वि जो ण परिहड़।
तस्सासवाणुवेक्खा, सव्वा वि णिरत्थया होदि ॥१३॥ जो पुरुष उपशम परिणामों में लीन होकर पूर्वकथित मिथ्यात्वादिभावों को हेय मानता हुआ छोड़ता है, उसके ही आस्रवभावना होती है। . इसप्रकार जानता हुआ भी जो त्यागने योग्य परिणामों को नहीं छोड़ता है, उसका आस्रवभावना संबंधी सम्पूर्ण चिंतन निरर्थक है।"
उक्त कथन से अत्यन्त स्पष्ट है कि आस्रवभावना के चिंतन की सार्थकता आस्रवभावों को हेय जानकर, हेय मानकर त्याग देने में ही है।
अशुभास्रवरूप पापासवों को तो सम्पूर्ण जगत सहजरूप से हेय स्वीकार कर लेता है; परन्तु शुभास्त्रवरूप पुण्यात्रव भी हेय हैं - यह बात सामान्यजनों को आसानी से गले नहीं उतरती। उन्हें यह विकल्प बना ही रहता है कि शुभ और अशुभ अथवा पुण्य और पाप समानरूप से हेय कैसे हो सकते हैं? उनका अंतरंग शुभास्रव-पुण्यात्रव को सहजरूप से हेय स्वीकार नहीं कर पाता है।