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बारहभावना : एक अनुशीलन
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आस्रवभावना में आस्रवों के भेद-प्रभेदों के विस्तार में जाने की अपेक्षा आस्रवों के हेयत्व का चिन्तन अधिक आवश्यक है, अधिक उपयोगी है और आस्रवों से भिन्न भगवान आत्मा के उपादेयत्व का चिंतन उससे भी अधिक आवश्यक है, उससे भी अधिक उपयोगी है।
उपलब्ध बारह भावनाओं में लगभग सर्वत्र ही उक्त भाव उपलब्ध होता । उक्त संदर्भ में पंडित श्री जयचन्दजी छाबड़ा कृत बारह भावना का निम्नांकित छंद द्रष्टव्य है -
"आतम केवल ज्ञानमय, निश्चयदृष्टि निहार ।
सब विभाव परिणाममय, आस्रवभाव विडार ॥
निश्चयदृष्टि से देखें तो भगवान आत्मा तो मात्र ज्ञानमय है, विभावपरिणामरूप समस्त आस्रवभाव उसमें हैं ही नहीं। ज्ञानमय आत्मस्वभाव के अज्ञान के कारण पर्याय में जो विभावपरिणामरूप आस्रवभाव उत्पन्न हो रहे हैं, वे सब विडारने योग्य हैं, हेय हैं।"
ब्र. चुन्नीभाई देसाई कृत बारह भावना में समागत आस्रवभावना संबंधी निम्नांकित छन्द भी द्रष्टव्य हैं -
"पूर्वकथित मिथ्यात्व आदि जे आस्त्रवभेद बखाने । निश्चय सो आतम के नाहीं यों चिंतन उर आने ॥ द्रव्य और भावास्त्रव सों है भिन्न आतमा मेरा । बारम्बार भावना भावै मिटै सकल जग फेरा ॥"
इसीप्रकार का भाव श्री नथमलजी बिलाला कृत बारह भावना में उपलब्ध
होता है, जो इसप्रकार है
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"आस्रव तें प्राणी संसार विषै भ्रमै । उदधि विषै जिमि काठ नाहिं थिरता पमैं॥
दीजिए ।
यातैं आस्रव सकल पूर तज अविनाशी चिद्रूप ताहि भज
लीजिए ||
जिसप्रकार सागर की हिलोरों में डोलता काठ का टुकड़ा स्थिरता प्राप्त नहीं कर पाता है; उसीप्रकार यह प्राणी आस्रवों के कारण भवसागर में घूमता