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अशुचिभावना : एक अनुशीलन
इसप्रकार की चिन्तनप्रक्रिया यद्यपि चतुर्थ और पञ्चम गुणस्थान में भी चलती रहती है; तथापि उसमें वह तेजी नहीं होती, जो मुनि अवस्था में पाई जाती है। स्वरूप के साधक परमवीतरागी भावलिंगी दिगम्बर मुनिराजों के यह गति इतनी तीव्र होती है कि प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में यह चक्र एक बार तो घूम ही जाता है। यही कारण है कि बारह भावनाओं की चर्चा मुख्यरूप से मुनिराजों के सन्दर्भ में की जाती है ।
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अनवरतरूप से चलनेवाली इस सम्पूर्ण प्रक्रिया से चारित्रमोह सम्बन्धी अनुराग भी निरन्तर क्षीण से क्षीणतर एवं क्षीणतर से क्षीणतम होता जाता है और एक दिन ऐसा भी आ जाता है कि यह आत्मा अनन्त काल तक के लिए अपने में ही समा जाता है; फिर उसकी समाधि कभी भंग नहीं होती, अपने में ही मग्न वह आत्मा अनन्त काल तक अनन्तसुख भोगता है ।
इस स्थिति पर पहुँच जाने पर बारह भावनाओं की चिन्तनप्रक्रिया से भी सदा के लिए पार हो जाता है । बारह भावनाओं के चिन्तन का मूल प्रयोजन उक्त स्थिति तक पहुँचना ही है ।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इन बारह भावनाओं के चिन्तन की उपयोगिता मिथ्यात्वी मुमुक्षु आत्मार्थी से लेकर अपनी-अपनी भूमिकानुसार तबतक निरन्तर आवश्यक है, जबतक कि यह आत्मा पूर्ण वीतरागी होकर अनन्तकाल तक के लिए समाधि में समाहित नहीं हो जाता है।
बुद्धिपूर्वक की जानेवाली आत्मसाधना या आत्माराधना की प्रक्रिया और विधि तो मात्र यही है । जो आत्मार्थी बुद्धिपूर्वक उक्त विधि को अपनाते हुए उग्रता से आत्मोन्मुखी प्रबल पुरुषार्थ करते हैं, लगता है उनका भवितव्य अच्छा है और उनके संसार से पार होने का समय आ गया है, तभी तो वे इस पतनोन्मुखी भोगप्रधान युग में भोगों से विरक्त हो आत्मोन्मुखी सम्यक् पुरुषार्थ में संलग्न हैं ।
सभी आत्मार्थी शरीरादि संयोगों की अशुचिता एवं निजस्वभाव की शुचिता को भली-भाँति जानकर, पहिचानकर; संयोगों से विरत हो, निजस्वभाव में रत होकर अनन्तसुखी हों - इस पावन भावना से विराम लेता हूँ ।