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बारहभावना : एक अनुशीलन
मात्र है ; तथापि उसे इतना कमजोर भी नहीं समझना चाहिए कि वह अनुराग चित्त को तरंगायित ही न कर सके। ___ आदिनाथ भगवान की दिव्यध्वनि का लाभ छोड़कर भरत चक्रवर्ती को साठ हजार वर्ष तक लड़ने के लिए प्रेरित करनेवाली, बाध्य करनेवाली, विकल्पतरंगें अस्थिरताजन्य अनुराग का ही परिणाम थीं।
उक्त अस्थिरताजन्य विकल्पतरंगों के शमन के लिए शरीरादि संयोगों की अनित्यता, अशरणता, असारता, पृथकता, अशुचिता आदि की चिन्तनधारा ज्ञानियों को भी चलती रहती है और चलती रहनी चाहिए। ___ ज्यों-ज्यों यह चिन्तनधारा प्रबल से प्रबलतर एवं प्रबलतर से प्रबलतम होती जाती है; त्यों-त्यों उक्त अस्थिरताजन्य विकल्पतरंगें निरन्तर कमजोर पड़ती जाती हैं और ज्यों-ज्यों वे विकल्पतरंगें कमजोर पड़ती जाती हैं; त्योंत्यों यह चिन्तनधारा और भी अधिक प्रबलरूप धारण करती जाती है।
चिन्तन की यह प्रबलता उक्त विकल्पतरंगों को उपशमित कर स्वयं भी उपशमित हो जाती है और आत्मा निर्विकल्प समाधि में समा जाता है।
अन्तर का जोर कमजोर पड़ते ही समाधि भंग हो जाती है और चित्त में फिर उसीप्रकार की विकल्पतरंगें उठने लगती हैं। उन विकल्पतरंगों को शमन करने के लिए फिर वही संयोगों की अनित्यादि सम्बन्धी एवं निजस्वभाव के सामर्थ्य सम्बन्धी चिन्तनधारा चल पड़ती है। वह चिन्तनधारा पूर्वोक्त क्रमानुसार प्रबलता को प्राप्त होती हुई रागात्मक विकल्पतरंगों को उपशमित करके स्वयं उपशमित हो जाती है और आत्मा फिर निर्विकल्प समाधि में समा जाता है। __ अन्तर का जोर कमजोर पड़ते ही समाधि फिर भंग हो जाती है। फिर वही क्रम आरम्भ होता है - विकल्पतरंगों का उठना, उनके विरुद्ध ज्ञानात्मक चिन्तन का जागृत होना, प्रतिसमय विकल्पतरंगों का निर्बल और वैराग्योत्पादक चिन्तनधारा का सबल होते जाना और अन्त में दोनों ही विलीन होकर समाधि में समा जाना तथा अन्त में अन्तर का जोर कमजोर पड़ते ही समाधि का भंग हो जाना।