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निज भाव से विपरीत अर जो आस्रवों के हेतु हैं । जो उन्हें मानें मुक्तिमग वे साधु सचमुच अज्ञ हैं ॥५५॥ अरे जो कर्मजमति वे करें आत्मस्वभाव को । खण्डित अत: वे अज्ञजन जिनधर्म के दूषक कहे ॥५६।। चारित रहित है ज्ञान-दर्शन हीन तप संयुक्त है। क्रिया भाव विहीन तो मुनिवेष से क्या साध्य है ॥५७॥ जो आत्मा को अचेतन हैं मानते अज्ञानि वे । पर ज्ञानिजन तो आतमा को एक चेतन मानते ॥५८॥ निरर्थक तप ज्ञान विरहित तप रहित जो ज्ञान है । यदि ज्ञान तप हों साथ तो निर्वाणपद की प्राप्ति हो ॥५९।।
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