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ज्यों धूप से छाया में रहना श्रेष्ठ है बस उसतरह । अव्रतों से नरक व्रत से स्वर्ग पाना श्रेष्ठ है ॥२५।। जो भव्यजन संसार-सागर पार होना चाहते । वे कर्म ईंधन-दहन निज शुद्धात्मा को ध्यावते ॥२६।। अरे मुनिजन मान-मद आदिक कषायें छोड़कर । लोक के व्यवहार से हों विरत ध्याते आतमा ।।२७।। मिथ्यात्व एवं पाप-पुन अज्ञान तज मन-वचन से ।
अर मौन रह योगस्थ योगी आतमा को ध्यावते ॥२८॥ दिखाई दे जो मुझे वह रूप कुछ जाने नहीं । मैं करूँ किससे बात मैं तो एक ज्ञायकभाव हूँ ॥२९॥
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