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शुद्धात्मा को ध्यावते जो योगि जिनवरमत विर्षे । निर्वाणपद को प्राप्त हों तब क्यों न पावें स्वर्ग वे ॥२०॥ गुरु भार लेकर एक दिन में जाँय जो योजन शतक । जावे न क्यों क्रोशार्द्ध में इस भुवनतल में लोक में ॥२१॥ जो अकेला जीत ले जब कोटिभट संग्राम में । तब एक जन को क्यों न जीते वह सुभट संग्राम में ॥२२॥ शुभभाव-तप से स्वर्ग-सुख सब प्राप्त करते लोक में। पाया सो पाया सहजसुख निजध्यान से परलोक में ॥२३॥ ज्यों शोधने से शुद्ध होता स्वर्ण बस इसतरह ही । हो आतमा परमातमा कालादि लब्धि प्राप्त कर ॥२४॥
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