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अज्ञान नाशक पंचविध जो ज्ञान उसकी भावना। भा भाव से हे आत्मन् ! तो स्वर्ग-शिवसुख प्राप्त हो॥६५॥ श्रमण श्रावकपने का है मूल कारण भाव ही। क्योंकि पठन अर श्रवण से भी कुछ नहीं हो भावबिन॥६६॥ द्रव्य से तो नग्न सब नर नारकी तिर्यंच हैं। पर भावशुद्धि के बिना श्रमणत्व को पाते नहीं॥६७॥ हों नग्न पर दुख सहें अर संसारसागर में रुलें। जिन भावना बिन नग्नतन भी बोधि को पाते नहीं॥६८॥ मान मत्सर हास्य ईर्ष्या पापमय परिणाम हों। तो हे श्रमण तननगन होने से तुझे क्या साध्य है।६९॥
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