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चतुर्गति से मुक्त हो यदि शाश्वत सुख चाहते। तो सदा निर्मलभाव से ध्याओ श्रमण शुद्धातमा॥६०॥ जो जीव जीवस्वभाव को सुधभाव से संयुक्त हो। भावे सदा वह जीव ही पावे अमर निर्वाण को॥६१।। चेतना से सहित ज्ञानस्वभावमय यह आतमा। कर्मक्षय का हेतु यह है यह कहें परमातमा॥६२।। जो जीव के सद्भाव को स्वीकारते वे जीव ही। निर्देह निर्वच और निर्मल सिद्धपद को पावते॥६३॥
चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है॥६४॥