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तिर्यंचगति में खनन उत्तापन जलन अर छेदना। रोकना वध और बंधन आदि दुख तूने सहे ॥१०॥ मानसिक देहिक सहज एवं अचानक आ पड़े। ये चतुर्विध दुख मनुजगति में आत्मन् तूने सहे॥११॥ हे महायश सुरलोक में परसंपदा लखकर जला। देवांगना के विरह में विरहाग्नि में जलता रहा ॥१२॥ पंचविध कांदर्पि आदि भावना भा अशुभतम । मुनि द्रव्यलिंगीदेव हों किल्विषिक आदिक अशुभतम॥१३॥ पार्श्वस्थ आदि कुभावनायें भवदुःखों की बीज जो। भाकर उन्हें दुख विविध पाये विविध वार अनादि से॥१४॥
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