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दूध घृतमय लोक में अर पुष्प हैं ज्यों गंधमय । मुनिलिंगमय यह जैनदर्शन त्योंहि सम्यक् ज्ञानमय।।१५।। जो कर्मक्षय के लिए दीक्षा और शिक्षा दे रहे। वे वीतरागी ज्ञानमय आचार्य ही जिनबिंब हैं ॥१६॥ सद्ज्ञानदर्शन चेतनामय भावमय आचार्य को। अतिविनय वत्सलभाव से वंदन करो पूजन करो॥१७॥ व्रततप गुणों से शुद्ध सम्यक्भाव से पहिचानते। दें दीक्षा शिक्षा यही मुद्रा कही है अरिहंत की॥१८॥ निज आतमा के अनुभवी इन्द्रियजयी दृढ़ संयमी। जीती कषायें जिन्होंने वे मुनी जिनमुद्रा कही॥१९॥
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