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ईर्या समिति की जगह पृथ्वी खोदते दौड़ें गिरें । रे पशूवत उसकर चलें वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ॥१५॥ जो बंधभय से रहित पृथ्वी खोदते तरु छेदते। -- अर हरित भूमी रोंधते वे श्रमण नहीं तिर्यंच हैं ॥१६॥ राग करते नारियों से दूसरों को दोष दें । सद्ज्ञान-दर्शन रहित हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच है ॥१७॥ श्रावकों में शिष्यगण में नेह रखते श्रमण जो । हीन विनयाचार से वे श्रमण नहीं तिर्यंच हैं ।।१८।। इस तरह वे भ्रष्ट रहते संयतों के संघ में । रे जानते बहुशास्त्र फिर भी भाव से तो नष्ट हैं ।।१९।।
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